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तृतीय खण्ड। [२३६ . भावेण होइ जग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं । पच्छा ट्वेण मुणी पयदि लिंग जिणाणाए ॥७३॥
भावार्थ-जो पहिले मिथ्यादर्शन आदि दोषोंको छोड़कर अंत रंग नग्न होजाता है, वही पीछे जिनकी आज्ञा प्रमाण द्रव्यसे मुनि लिंगको प्रगट करता है।
भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे। गहि उझियाई वहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाई॥ ७ ॥
भावार्थ-हे सत्पुरुप ! भाव रहित होकर अनादिकालसे इस अनंत संसारमें तृने बाहर मुनिका भेष बहुतवार ग्रहण किया और छोड़ा है ॥ ६४॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो अपने शुद्ध औत्मामें एकाग्र हैं उन हीके मोक्ष होती है:अत्थेमु जो ण मुज्झदि ण हि रजदि णेव दोसमुपयादि । समणो जदि सो णियई खवेदिकम्माणि विविधाणि ॥६॥
अर्थपु यो न मुह्यति नहि रज्यति नैव दोषमुपयाति। श्रमणो यदि स नियतं परतिकर्माणि विविधानि ॥६५॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जदि जो) तथा जो कोई (अत्थेसु) अपने आत्माको छोड़कर अन्य पदार्थोंमें (ण मुज्झदि) मोह नहीं करता है, (णहि रज्जदि) राग नहीं करता है (णेव दोसमुपयादि) और न द्वेपको प्राप्त होता है ( सो समणो) वह साधु (णियदं) निश्चयसे (विविधाणि कम्माणि खवेदि) नाना प्रकार कोका क्षय करता है।
विशेषार्थ-जो कोई देखे, सुने, अनुभवे भोगोंकी इच्छाको आदि लेकर अपध्यानको त्याग करके अपने स्वरूपकी भावना करता