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श्रीप्रवचनसारटीका ।
भेष मात्र है - उससे कुछ भी कार्यकी सिद्धि न होगी । श्री कुंदकुंद भगवानने लिंग पाहुडमें कहा है-
रामो करेदि णिचं महिला वग्गं परं च दूसेइ । दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी पण सो समणो ॥ १७ ॥ भावार्थ - जो साधु सदा स्त्रियोंसे राग करता है तथा दूसरोंमे . द्वेष करता है तथा सम्यक्त व सम्यग्ज्ञानसे रहित है वह साधु नहीं किन्तु पशु है ।
पव्त्रजहोणगहिणं हि सोसम्म वट्टदे बहुसो । आयारविणयहोणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ||१८|| भावार्थ- जो दीक्षा रहित गृहस्थोंमें और अपने शिप्योंपर बहुत स्नेह करता है, मुनिकी क्रिया व गुरुकी विनयसे रहित है वह साधु नहीं है किन्तु पशु है ।
और भी स्वामीने भावपाहुडमें कहा है
जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिति । छिदति भावसवणा झाणकुठारेहि भवरुक्खं ॥ १२२ ॥
भावार्थ - जो कोई द्रव्यलिंगी साधु इंद्रियोंके सुखोंके लिये व्याकुल हैं वे संसारका छेद नहीं करसक्के, परन्तु जो भाव साधु हैं - वे ध्यानके कुठारोंसे संसार वृक्षको छेद डालते हैं ।
भावो वि दिव्वत्रिसुखभोगणे भाववजिओ सबणो । कम्ममलमणिचित्तो तिरियालयमायणी पावों ||१४||
भावार्थ - भाव ही स्वर्ग तथा मोक्षके सुखका कारण है। जो साधु भाव रहित है वह पापी कर्ममलसे मलिन होचर तिर्यच गतिका पाप बंध करता है ।