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तृतीय खण्ड ।
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समान नाना प्रकारके कर्म बांधता है-उसके लिये वह मुनिपद केवल द्रव्यलिंग या भेप मात्र है । कार्यकी सिद्धि तो अभेद रत्नत्रयमई स्वानुभाव रूप साम्यभावसे होगी। वही वीतरागताके प्रभावसे कर्मोको नाश कर सकेगा और आत्माको मुक्त होनेके निकट पहुंचाएगा । यदि उपयोग बाहरी पदार्थोंमें रमेगा तो आत्माकी प्रीतिको छोड़ "टेगा तब मिथ्याअदानी, मिथ्याज्ञानी व मिथ्याचारित्री होता हुआ संमार के कारणीभूत कमका वैध करेगा । इसलिये रत्नत्रयकी एकताकी प्राप्ति ही मोक्ष मार्ग है। सम्यग्दृष्टि साधुगण अपने योग्य चाके पालन में सदा सावधान रहते हैं। वे धर्मके श्रद्धावान होते हुए प्रमादी नहीं होते और रात दिन इस जगतको नाटकके समान देखने हुए इसमें बिल्कुल भी मोह नहीं करते। जहां मोह नहीं यहां राग द्वेप भी नहीं होते । परद्रव्योंको अपनेसे भिन्न उदासीनतारूपजाननेमें कोई दोष नहीं है उन्हीको रागद्वेप सहित जानने में दोष है । इसलिये आत्मध्यानके इच्छुकको रागद्वेप मोह नहीं करने चाहिये। जैसा श्री नेमिचंद सि० च०ने द्रव्यसंग्रहमें कहा है ।
मा मुक्तह मा रहमा दुस्सह इट्ठट्टि अत्येषु । frर मिच्छदि जदि चित्तं विचित्तभ्राणप्पसिद्धोए ॥
Hard - यदि तू चित्तको स्थिर करना चाहता है इसलिये कि नाना प्रकारकी ध्यानकी सिद्धि हो तो तुझे उचित है कि तृ अनिष्ट पदार्थोंमें रागद्वेप मोह मतकर ।
वास्तव में मुनिपद ध्यानके लिये ही व आत्मानुभवके रसके पान करने के लिये ही धारण किया जाता है । यदि आत्मध्यानका साधन नहीं है व स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है तो वह मुनिपद मात्र