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________________ २३६] श्रीप्रवचनसारटोका । उत्थानिका-आगे कहते हैं जो शुद्ध आत्मामें एकाग्र नहीं होता है उसके मोल नहीं होसक्ती है-~मुज्झदि वा रजदि वा दुस्सदि या दरमण्णमासेज। जादि समगो अग्णाणी पअदि कम्मेहिं विविहेहिं ।। ६४ ॥ मुहरति वा रज्यति वा झेष्टि या द्रव्यमन्यवासाद्य । यदि श्रमणोऽज्ञानी वध्यते कर्मभिर्विविधैः ॥ ६४ ॥ अन्य सहित सामान्यार्थ--(जदि ) यदि (समणो) कोई साधु (अण्णं दुब्दं आनेज) अपनेसे अन्य किसी द्रव्यको ग्रहण कर (मज्झदिया) उसमें मोहित हो जाता है (रजदि वा ) अथवा उसमें रागी होता है ( दुस्सदि वा ) अथवा उसमें द्वेष करता है (अण्णाणी) तो वह साधु यजानी है, इसलिये (विविहेहि कम्महिं) नाना प्रकार का (वज्झदि) बंध जाता है। विशेषार्थ-जो निर्विकार वर्मवेदन ज्ञानसे एकाय होकर अपने आत्माको नहीं अनुभव करना है उसका चित्त बाहरके पदार्थो में जाता है तब चिदानन्द नई एक अपने आत्माके निज स्वभावसे गिर जाता है तब गगद्धेप मोह भावोंसे परिणामन करता है । इस तरह होकर नाना प्रकार कर्मासे · वंध जाता है। इस कारण मोक्षार्थी पुरुषोंको चाहिये कि एकाग्रताके साथ अपने | आत्म स्वरूपकी भावना करें। भावार्थ-यदि कोई साधुपद धारण करके भी अपने आत्माका ध्यान करना छोड़कर पांचों इन्द्रियोंके विपयोंमें व बाहरी सांसारिक कार्योंमें मोहित होकर किसीसे राग व किसीसे द्वेष करता है तो वह आत्मज्ञानसे शून्य होकर अज्ञानी होजाता है, तब मिथ्यादृष्टी जीबके
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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