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तृतीय खण्ड। ही मुनिपना है । इसीको स्वामी कुंदकुंद मोक्षपाहुड़में कहते हैं ।
चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो रागरोसरहिओ जोवस्स अणण्णपरिणामो ॥५०॥
भावार्थ-आत्माका खभाव चारित्र है सो आत्माका स्वभाव आत्माका साम्यभाव है । वह समताभाव रागद्वेप रहित आत्माका निज भाव है । फिर कहते हैं
होउण दिढचरित्तो दिवसम्मत्तण भावियमइओ। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई ॥ ४६॥
भावार्थ-जो योगी दृढ़ सम्यग्दर्शन सहित अपने ज्ञानकी भावना करता हुआ दृढ़ चारित्रवान होकर अपने आत्माको ध्याता है वही परम पढ़को पाता है। श्री योगेन्द्राचार्य योगसारमें कहते हैं
जो समसुक्खणिलीण बुहु पुण पुण अप्प मुणेइ । कम्मरखउ करि सो वि फुड लहु णिव्वाण लहेइ ॥२॥
भावार्थ-जो बुधवान साधु समताके सुखमें लीन होकर वार वार अपने आत्माका अनुभव करता है सो प्रगटपने शीघ्र ही कर्मोका क्षयकर निर्वाण पालेता है। अनगार धर्मामृतमें पं० आशाधर कहते हैं
अहो योगस्य माहात्म्यं यस्मिन् सिद्धेऽस्त तत्पथः । पापान्मुक्तः पुमाल्लंब्धः स्वात्मा नित्यं प्रमोदते ॥१५८॥
भावार्थ-यह ध्यानकी महिमा है जिस ध्यानकी सिद्धि होने पर कुमार्गसे परे रह पुरुष पापोंसे छूटकर अपने आत्माको पाकर नित्य आनंदित रहता है।
इस तरह निश्चय और व्यवहार संयमके कहनेकी मुख्यतासे तीसरे स्थलमें चार गाथाएं पूर्ण हुई ।। ६३ ॥