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तृतीय खण्ड। [२१९ भावार्थ-जो पर द्रव्योंमें लीन है वह बंधको प्राप्त होता है, परंतु जो विरक्त है वह नानाप्रकार काँसे मुक्त होजाता है ऐसा जिनेन्द्रका उपदेश वैध मोक्षके सम्बन्धमें संक्षेपसे जानना चाहिये ॥१८॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं जो पूर्व सूत्रमें कहे. प्रमाण आत्मज्ञानसे रहित है उसके एक साथ आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान तथा संयमपना होना भी कुछ कार्यकारी नहीं है । मोक्ष प्राप्तिमें अकिंचित्कर है:परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादियेमु जस्स पुणो। विजदि जदि सो सिद्धिंण लहदि सव्वागमधरोवि ॥१९॥
परमाणु प्रमाणं वा मूर्छा देहादिकेषु यस्य पुनः । विद्यते यदि सः सिद्धि न लभते सर्वागमधरो पि ॥ ५६ ।। . अन्वय सहित सामान्यार्थ-(पुणो) तथा ( जस्स.) जिसके भीतर (देहादियेसु) शरीर आदिकोंसे (परमाणुपमाणं वा) परमाणु मात्र भी (मुच्छा) ममत्वभाव (जदि विजदि) यदि है तो (सो) वह साधु (सव्वागम धरो वि) सर्व आगमको जाननेवाला है तो भी (सिद्धिं ण लहदि) मोक्षको नहीं पासक्ता है।
विशेपार्थ-सर्व आगमज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धान तथा संयमीपना एक कालमें होते हुए जिसके शरीरादि परं द्रव्योंमें ममता जरासी भी है उसके पूर्व सूत्रमें कहे प्रमाण निर्विकल्प समाधिरूप निश्चय रत्नत्रय मई स्वसंवेदनका लाभ नहीं है ।।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने बिलकुल स्पष्ट कर दिया है कि तत्वज्ञानी साधुको सर्व प्रकारसे रागद्वेष या ममत्वभावसे शून्य होकर ज्ञान वैराग्यसे परिपूर्ण होजाना चाहिये। सिवाय अपने