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२२० ] श्रीप्रवचनसारटोका।। शुद्ध आत्म द्रव्यके उसके शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि गुणोंके व उसकी शुद्ध सिद्ध पर्यायके और कोई द्रव्य, गुण, पर्याय मेरा नहीं है ऐसा यथार्थ श्रद्धान तथा ज्ञान होना चाहिये-पर पदार्थके आलम्बनसे इंद्रियोंके द्वारा जो सुख तथा ज्ञान होता है वह न यथार्थ स्वाधीन सुख है, न ज्ञान है, ऐसा दृढ़ विश्वास जिसको होता है वही सर्व पदार्थोंसे ममता रहित होकर अपने आत्माके मननमें तन्मयता प्राप्त करता है और आत्माके अभेद रत्नत्रय खभावके ध्यानसे मुक्त होजाता है । जो कोई ग्यारह अंग १० पूर्व तक भी जाने परन्तु निज आत्मीक सुख व ज्ञानके सिवाय शरीर व इंद्रियोंके सुखमें किंचित् भी ममता रक्खे तो वह निर्विकल्प शुद्ध ध्यानको न पाता हुआ कभी भी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सक्ता है । उसको तो ऐसा पक्का श्रद्धान होना चाहिये जैसा कि देवसेनाचार्यने तत्त्वसारमें कहा है
परमाणुमित्तएयं जाम ण छंडेइ जोइ समणम्मि । सो कम्मेण ण मुच्चइ परमवियाणवो सवणो ॥५३ ॥
भावार्थ-जो योगी अपने मनसे परमाणु मात्र भी रागको न छोड़े तो वह साधु परमार्थ ज्ञाता होनेपर भी कर्मोसे मुक्त नहीं हो सक्ता है।
ण मुएइ सगं भावं ण परं परिणमइ मुणइ अप्पाणी सो जोवो सवरणं णिजरणं सो फुडं भणिओ ॥ ५५ ॥
भावार्थ-जो अपने आत्मिक भावको न छोड़े और परभावोंमें न परिणमें तथा निज आत्माका ही ध्यान करे सो जीव प्रगटपने संवर और निर्जरा रूप कहा गया है। .