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२२८] श्रीप्रवचनसारटोका। मुक्ति सुन्दरीके महलमें पहुंचानेवाली है, अतएव 'जिनको यह चौथी सीढ़ी प्राप्त है वे ही कर्मोंको दग्धकर केवलज्ञानी हो जाते हैं।
खानुभव रूपं सीढ़ीका लाभ अविरत सम्यग्दर्शनके चौथे गुणस्थानसे ही होजाता है, क्योंकि स्वानुभव दशा शक्तिके अभाबसे अधिक कालतक “जबतक क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़े" नहीं रह सक्ती है इसलिये अभ्यास करनेवालेको साधक अवस्थामें नीचेकी तीन सीढ़ियोंका भी आलम्बन लेना पड़ता है। आत्मस्वरूपमें तन्मयता ही अपूर्व काम करती है । कहा है
दंतेंदिया महरिसी रागं दोसं च ते खवेवणं । भाणोवोगजुत्ता खति कम्म खविदमोहा ।। ८८१ ॥
भावार्थ-जो महारिषी इन्द्रियोंको दमन करते हुए राग हपोंको त्यागकर ध्यानके उपयोगमें तन्मय हो जाते हैं वे मोह कर्मको नाश कर फिर सर्व कर्मोको नाश कर डालते हैं।
पं० आशाधर अनगारधर्मामृतमें कहते हैंअहो योगस्य माहात्म्यं यस्मिन् सिद्धेऽस्ततत्पथः ।। पापान्मुक्तः पुमाल्लंब्धस्वात्मा नित्यं प्रमोदते ॥ १५८ ॥
भावार्थ-अहो यह ध्यानकी ही महिमा है जिस ध्यानकी सिद्धि होनेपर सर्व विकल्प मार्गको त्यागे हुए पापोंसे मुक्त हो अपने आत्माको अनुभव करता हुआ यह पुरुष नित्य आनन्दमें मग्न रहता है।
वास्तवमें स्वभावकी तन्मयता ही मुक्तिका वीज है । स्वामी कुन्दकुन्द मोक्षपाहुड़में कहते हैं---
परदध्वरओ वज्झदि विरओ मुच्चई विविहकम्महि । एसो जिणउवदेसो समासदो बंधमुक्खस्ल ॥ १३ ॥