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नोंमें भी थोड़ी२ एकाग्रता अपने स्वरूप में करती है। फिर जब साधु हो चमका प्रतापस चारूपकी एकायतारूपी मागका का दोवाल प्रकार प्राप्त कर लेता है। प्रयोजन कहने की यह कि अभिमान भाव मुनिही कारण है। मूल चारा भी बुडी तंत
गविणारण समाहिमोभिक्खू श
महिलाहि कसल
अत्थि वि य होही सज्झायसमं तवोकम्म ॥४६॥ सुई जहा सुसुत्ता सिद्धिमाद मासुतपुरिसोगी सिदि तहाँ पमाददोंण ॥८०॥ भावार्थ-जो साधु खाध्यायै "कराव चन्द्रियको विकामित रखता हुआ, "मने बैंचने कीया गुप्ति में जो हुआ, एकाग्र मन रखता हुआ विनय सहित होतोः स्वाध्याय दिना इंद्रिय मनका निराधाको स्वरूपमें एकाग्रता तथा रत्नत्रयका विनय नहीं हो सका है।सधिकरीदिन जो जभ्यन्तर बारह बेरिह प्रकारका तप प्रदर्शित किया है उनमें स्वाध्याय करने के समान न कोई तप आगा। जैसे सूतम परोई हुई सुई
प्रमाद दीवसे भी नहीं नष्ट होती है' 'अर्थात् भूल मानेपर भी निमल "है, वैसे ही जो शास्त्रका अभ्यासी पुरुष है वह प्रमोद दीपसे नष्ट होकर मंसाररूपी गर्वमें नहीं पड़ती है। शास्त्रज्ञान - सदा 'ही' परिणामों का "मोक्ष मार्गेमें उत्साहित रखता है । इसलिये साधुको शास्त्रोंका अभ्यास निरंतर करना चाहिये कभी भी शास्त्रका