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____ तृतीय खण्ड। [१९३ लगा हुआ है सो श्रमण है। टांकीमें उकेरेके समान ज्ञाता दृष्टा एक स्वभावका धारी जो परमात्मा पदार्थ है उसको आदि लेकर सर्व पदार्थोंमें जो साधु शृद्धाका धारी हो उसीके एकाग्रभाव प्राप्त होता है । तथा इन जीवादि पदार्थोका निश्चय आगमके द्वारा होता है। अर्थात् जिस आगममें जीवोंके भेद तथा कर्मोके भेदादिका कथन हो उसी आगमका अभ्यास करना चाहिये । केवल पढ्नेका ही अभ्यास न करे किन्तु आगमोंमें सारभूत जो चिदानंदरूप एक परमात्मतत्वका प्रकाशक अध्यात्म ग्रंथ है व जिसके अभ्याससे पदार्थका यथार्थ ज्ञान होता है उसका मनन करे। इस कारणसे ही उस ऊपर कहे गए आगम तथा परमागममें जो उद्योग है वह श्रेष्ट है। ऐसा अर्थ है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बतलाया है कि शुद्धोपयोगका लाभ उसी समय होगा जब किजीव अजीव आदि तत्वोंका यथार्थज्ञान और श्रद्धान होगा । जिसने सर्व पदार्थोके स्वभावको समझ लिया है तथा अध्यात्मिक ग्रन्थोंके मननसे निज आत्माको परमशुद्ध केवलज्ञानका धनी निश्चय किया है वही श्रद्धा तथा ज्ञान पूर्वक स्वरूपाचरणमें रमण कर सक्ता है। पदार्थोका ज्ञान जिन आगमके अच्छी तरह पठन पाठन व मनन करनेसे होता है इस लिये साधुको जिन आगमके अभ्यासकी चेष्ठा अवश्य करनी चाहिये, विना आगमके अभ्यासके भाव लिंगका लाभ होना अतिशय कठिन है, उपयोगकी थिरता पाना बहुत कठिन काम है। ज्ञानी जीव ज्ञानके बलसे पदार्थोंका स्वरूप ठीक ठीक समझके समदर्शी होसक्ता है।
व्यवहानयसे पदार्थोका स्वरूप अनेक भेदरूप व अनेक पर्यायरूप है जब कि निश्चयनयसे हरएक पदार्थ अपने२ स्वरूपमें • १३