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श्रीप्रवचनसारटोका।
अभेद रत्नत्रय स्वरूप ही मोक्षमार्ग है ऐसा व्याख्यान करते हुए " आगमपुव्वा दिट्ठी" इत्यादि दूसरे स्थलमें चार सूत्र हैं। इसके पीछे द्रव्य व भाव संयमको कहते हुए "चागो य अणारंभो" इत्यादि तीसरे स्थलमें गाथाएं चार हैं। फिर निश्चय व्यवहार . मोक्षमार्गका संकोच करनेकी मुख्यतासे " मज्झदिवा " इत्यादि चौथे स्थलमें गाथा दो हैं। इस तरह तीसरे अंतर अधिकारमें चार स्थलोंसे समुदाय पातनिका है-सो ही कहते हैं।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो अपने स्वरूपमें एकाग्र है वही श्रमण है तथा सो एकाग्रता आगमके ज्ञानसे ही होती है।
एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेम्।। . णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्टा तदो जेठा ॥५२॥ एकाप्रगतः श्रमणः पकानं निश्चितस्य अर्घोषु । निश्चितिरागमत आगमचेष्ठा ततो ज्येष्टा ॥ ५२ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( एयग्गगदो ) जो रत्नत्रयकी एकताको प्राप्त है वह (समणो ) साधु है। (अत्थेसु णिच्छिदस्स) जिसके पदार्थोंमें श्रद्धा है उसके ( एयग्गं ) एकाग्रता होती है। (आगमदो णिच्छिती) पदार्थोका निश्चय आगमसे होता है (तदो) इसलिये ( आगमचेद्वा) शास्त्रज्ञानमें उद्यम करना (जेट्ठा) उत्तम है या प्रधान है।
विशेषार्थ-तीन नगत व तीन कालवर्ती सर्व द्रव्योंके गुण और पर्यायोंको एक काल जाननेको समर्थ सर्व तरहसे निर्मल केवलज्ञान लक्षणके धारी अपने परमात्मतत्वके सम्यक श्रद्धान, ज्ञान और चारित्ररूप एकताको एकाग्र कहते हैं। उसमें जो तन्मयी भावसे