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तृतीय खण्ड। . [१६१' . तथानुष्ठेयमेतद्धि पंडितेन हितैषिणा। यथा न विक्रियां याति मनोऽत्यर्थं विपत्स्वपि ॥१६५॥ . संक्लेशों नहि कर्तव्यः संक्लेशो वन्धकारणं । संक्लेशंपरिणामेन जीवो दुखस्य भाजनं ॥ १६७ ॥ संशपरिणामेन जीवः प्राप्नोति भूरिशः । सुमहत्कर्मसम्बन्धं भवकोटिषु दुःखदम् ॥ १६८ ॥
भावार्थ-आत्महितको चाहनेवाले पंडितजनका कर्तव्य है कि इस तरह चारित्रको पाले निससे विपत्ति या उपसर्ग परीषह आनेपर भी मन अतिशय करके विकारी न हो, मनमें संक्लेश या दुःखित परिणाम कभी नहीं करना चाहिये। . ___ क्योंकि यह संक्लेश फर्मबंधका कारण है। ऐसे आर्तमावोंसे यह जीव दुःखका पात्र हो जाता है-संक्लेश भावसे यह जीव करोड़ों भर्वोमें दुःख देनेवाले महान् कर्मबन्धको प्राप्त होनाता है। ____ भाव यही है कि मनमें शुद्धोंपयोग और शुभोपयोग इन दोके सिवाय कभी अशुमोपयोगको स्थान नहीं देना. चाहिये ।
इस तरह 'उवयंरणं निणमगे' इत्यादि ग्यारह गाथाओंसे अपवाद मार्गका विशेष वर्णन करते हुए चौथे स्थलका व्याख्यान किया गया । इस तरह पूर्व कहे हुए क्रमसे ही “णिरवेक्खोजोगो" इत्यादि तीस गाथाओंसे तथा चार स्थलोंसे अपवाद नामका दूसरा अंतर अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ३१॥
इसके आगे चौदह गाथाओं तक श्रामण्य अर्थात् मोक्षमार्ग नामका अधिकार कहा जाता है । इसके चार स्थल हैं उनमेंसे पहले ही आगमके अभ्यासकी मुख्यतासे "एयग्गंमणो" इत्यादि यथाक्रमसे पहले स्थलमें चार गाथाएं हैं । इसके पीछे भेद व.