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तृतीय खण्ड।
[ १७७ (खादि) खाता है (ना पासदि ) अथवा स्पर्श करता है (सो) वह ( अणेक कोडीणं ) अनेक क्रोड़ (जीवाणं ) जीवोंके ( पिंड) समूहको ( किल ) निश्चयसे ( णिहणदि ) नाश करता है।
विशेपार्थ-मांसपेशीमें जो कच्ची, पक्की व पकती हुई हो हरसमय उस मांसकी रंगत, गंध, रस व स्पर्शके धारी अनेक निगोद जीव-जो निश्चयसे अपने शुद्ध बुद्ध एक स्वभावके धारी हैं-अनादि व अनंत कालमें भी न अपने स्वभावसे न उपजते न विनशते हैं, ऐसे जंतु व्यवहारनयसे उत्पन्न होते रहते हैं। जो कोई ऐसे कच्चेर पक्के मांस खंडको अपने शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतको न भोगता हुआ खालेता है अथवा स्पर्श भी करता है वह निश्चयसे लोकोंके कथनसे व परमागममें कहे प्रमाण करोडों जीवोंके समूहका नाशक होता है। ___ भावार्थ-इन दो गाथाओंमें-निनकी वृत्ति श्री अमृतचंद्रकत टीकामें नहीं है-आचार्यने बताया है कि मांसका दोष सर्वथा त्यागने योग्य है। मांसमें सदा सम्मूर्छन जंतु त्रस उसी जातिके उत्पन्न होते हैं जैसा वह मांस होता है । वेगिनती त्रसजीव पैदा हो होकर मरते हैं इसीसे मांसमें कभी दुर्गंध नहीं मिटती है । इन्द्रियसे पंचेंद्रिय' तक जंतुओंके मृतक कलेवरको मांस कहते हैं। साक्षात् मांस खाना जैसा अनुचित है वैसा ही जिन वस्तुओंमें त्रसजंतु उत्पन्न हो होकर मरे उन वस्तुओंको भी खाना उचित नहीं है, क्योंकि उनमें त्रस जंतुओंका मृतक कलेवर मिल जाता है। इसीलिये सदा ही ताजा शुद्ध भोजन गृहस्थको करना चाहिये और उसीमेंसे मुनियोंको दान करना चाहिये। वासी, सड़ा, वसा भोजन मांस दोषसे परिपूर्ण होता है।
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