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१७८] श्रीप्रवचनसारटोका।
श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमें अमृतचंद्र आचार्य मांसके संबंध यही बात कहते हैंयदपि फिल भवति मांस स्वयंमेव मृतस्य महिषवृपमादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ॥ ६६ ॥ आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीपु । सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ॥ आमा वा पक्यां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डे बहुकोटिजीवानाम् ॥ १८ ॥
भावार्थ-मांसके लिये अवश्य पशु मारे जायगे, इससे बड़ी हिंसा होगी। यदि कोई कहे कि अपनेसे मरे हुए बैल व भैसेके मांसमें तो हिंसा न होगी? उसके निषेधमें कहते हैं कि अवश्य हिंसा होगी क्योंकि उस मांसमें पैदा होनेवाले निगोद जीवोंका नाश हो नायगा। क्योंकि मांस पैशियोंमें कच्ची, पक्की व पकती हुई होनेपर भी उनमें निरन्तर उसी जातिके निगोद जीव पैदा होते रहते हैं। इसिलिये जो मांसकी डलीको कच्ची व पक्की खाता है या स्पर्श भी करता है वह बहुत कोड़ नतुओंके समूहको नाश करता है। भोजनकी शुद्धि मांस, मद्य, मधुके स्पर्श मात्रसे जाती रहती है इससे साधुगणोंको ऐसा ही आहार लेना योग्य है जो निर्दोष हो। जैसा कहा है:
जं सुद्धमसं सत्तं खजं भोजं च लेज पेजं वा गिणहंति मुणो मिक्खं सुत्तेण अणिदियं जं तु ॥ ८२४ ॥
भावार्थ-जो भोजन-खाद्य, भोज्य, लेह्य,पेय-शुद्ध हो, मांसादि दोष रहित हो, जंतुओंसे रहित हो, शास्त्रसे निन्दनीय न हो ऐसे