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तृतीय खण्ड ।
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वह न साधु है और न सम्यग्दृष्टी है। क्योंकि उसने जिन आज्ञाको
उल्लंघन किया है ।
साधुको बहुत भोजन नहीं करना चाहिये। वहीं लिखते है
पदम विउलाहारं विदियं कायसोहणं । तदिय गंधमलाई चउत्थं गीयवादयं ॥ ६६७ ॥ भावार्थ-साधुको ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये चार बातें न करनी चाहिये एक तो बहुत भोजन करना दूसरे शरीरकी शोभा करना, तीसरे गंध लगाना - मालाकी सुगंध लेना, चौथे गाना बजाना करना, साधु कभी भोजनकी याचना नहीं करते, कहा है
देहोति दोणकलुस' भास' च्छति परिसं वतुं । अवि णोदि अलाभेण ण य मोणं भंजदे धीरा ॥ ८१८ ॥ भावार्थ- मुझे ग्राप्त मात्र भोजन देओ ऐसी करुणा भाषा कभी नहीं कहते, न ऐसा कहते कि मैं ५ या ७ दिनका भूखा हूं यदि भोजन न मिलेगा तो मैं मर जाऊँगा मेरा शरीर कृश है, मेरे शरीर में रोगादि हैं, आपके सिवाय हमारा चौन है ऐसे दया उपजानेवाले वचन साधु नहीं कहते किन्तु भोग्न लाभ नहीं होनेपर मौनव्रत न हुए तोड़ते लौट जाते हैं - धीरवीर साधु कभी याचना नहीं करते । हाथ में भक्ति से दिये हुए भोजनको भी शुद्ध होनेपर ही लेते हैं जैसा कहा है:
जं होज वेहि तेहिअं व वेवण्ण जंतुसं सिह । अप्पासुगं तु णचा तं भिक्तं मुणो विवर्जेति ॥ ५६ ( मू० अ० ) भावार्थ- जो भोजन दो दिनका तीन दिनका व रसचलित, जन्तु मिश्रित व अप्रासुक हो ऐसा जानकर मुनि उस भिक्षाको