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श्रीप्रवचनसारटीका ।
आहारका असर बुद्धिपर पड़ता है । जो सूक्ष्म आत्मतत्त्वके मनन करनेवाले हैं उनकी बुद्धि निर्मल रहनी चाहिये । इन सात बातोंको जो अच्छी तरह पालते हैं उन्हीं का आहार योग्य होता है । श्री मूलाचार समयसार अधिकार में लिखा है:मिक्ख चर वस रणे थोवं जेमेहि मा वह अंप । दुःखं सह जिण णिद्दा मेति भावेहि खुट्टू वेरगं ॥८६५
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भावार्थ- आचार्य साधुको शिक्षा देते हैं कि तू कृन कारित अनुमोदन से रहित भिक्षा ले, स्त्री पशु नपुंसक आदि रहित पर्वतकी गुफा बन आदिमें बस, थोड़ा प्रमाण रूप नीम अपना जितना भोजन हो उससे कमसे कम -चौथाई भाग कम भोजन कर, अधिक बात न कर, दुःख व परीसहोंको सानन्द सहन कर, निद्राको जीत सर्व प्राणीमात्र से मैत्री रखे तथा अच्छी तरह वैराग्यकी भावना कर । सुनिको स्वयं भोजन करके कराके व अनुमोदना करके न लेना चाहिये। वहीं कहते हैं ।
जो भुंजदि आधाकरमं छजीवाण घायणं किच्चा ।
अहो लोल सजिन्भो ण वि समणी सावओ होज ॥ ६२७ पण व पाय वा अणुमणचित्तो ण तत्थ वोहेदि जेमंतोवि सवादी ण वि समणो दिट्टिसंपण्णो ॥ ६२८
भावार्थ- जो कोई साधु छ प्रकार के जीवोंकी हिंसा करके अधः कर्ममई अशुद्ध भोजन करता है वह अज्ञानी लोलुपी, जिह्वाका स्वादी न तो साधु है न श्रावक है । जो कोई साधु भोजन के पकने, पकाने में अनुमोदना करता है अधःकर्म दोषसे नहीं डरता
है वह ऐसे भोजनको जीमता हुआ आत्मांका घात करनेवाला है
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