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१६४] श्रीप्रवचनसारटीका । (णेहणिवाहिं उवजुत्तो) स्नेह व निद्रासे उपयुक्त होकर ( समणो) साधु (पमत्तो हवदि) प्रमादी हो सका है।
विशेषार्थ-सुखदुःख आदिमें समान चित्त रखनेवाला साधु क्रोधादि पंद्रह प्रमादसे रहित चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मतत्वकी भावनासे गिरा हुआ पन्द्रह प्रकार प्रमादोंके कारण प्रमादी हो जाता है।
भावार्थ-प्रमाद पन्द्रह होते हैं-चार कपाय-क्रोध, मान, माया, लोभ । चार विकथा-स्त्री, भोजन, चोर, रामकथा । पांत्र इंद्रिय स्पर्शनादि, स्नेह और निद्रा। इनके अस्सी भंग होते हैं। ४४४४१४१४१८० । अर्थात् एक प्रमाद भावमें १ कषाय, १ विकथा, १ इंद्रिय तथा स्नेह और निद्रा पांचका संयोग होगा। जैसे लोभ कषायवश स्त्री व.थानुरागी हो स्पर्शेद्रिय भोगमें स्नेहवान तथा निद्रालु हो जाना-यह एक भंग हुआ। इसी तरह लोभ कषायवश स्त्रीकथानुरागी हो, रसनेंद्रिय भोगमें स्नेहवान तथा निद्रालु होजाना यह दूसरा भंग हुआ । इसी तरह ८० भेद बन जांयगे । जब कभी इनमें से कोई भंग भावोंमें हो जाता तब मुनि प्रमत्त कहलाता है। प्रायः मुनिगण इस तरह ध्यान स्वाध्यायमें लीन रहते हैं कि इन प्रमादोंमेंसे एकको भी नहीं होने देते, परन्तु तीव्र कर्मोके उदयसे जब कभी प्रमादरूप भाव हो जावे तव ही साधु अप्रमादी होनेकी चेष्ठा करते तथा उस प्रमादके कारण अपने चित्तमें पश्चाताप करते हैं ॥ ४३ ॥ - उत्थानिका-आगे यह उपदेश करते हैं कि जो साधु योग्य आहारविहार करते हैं उनका क्या खरूप है ?