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तृतीय खण्ड ।
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जस्स असणमप्पा तंपि तओ तप्पडिच्छगा समणा । अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥ ४४ ॥ यस्यानेषण आत्मा तदपि तपः तत्प्रत्येषकाः श्रमणाः । अन्य भैक्षमनेषणमथ ते श्रमणा अनाहाराः ॥ ४४ ॥
अन्वयसहित सामान्यार्थ - (जस्स) जिस साधुका (अप्पा) आत्मा (असणम्) भोजनकी इच्छासे रहित है (तपि तभो ) सो ही तप है (तप्पच्छिगा) उस तपको चाहने वाले (समणा) सुनि ( अणे सणम् अण्णम् भिक्खं ) एषणादोष रहितं निर्दोष अन्नकी भिक्षाको लेते हैं (अध ते समणा अणाहारा) तौ भी वे साधु आहार लेनेवाले नहीं हैं ।
विशेषार्थ - जिस मुनिकी आत्रामें अपने ही शुद्ध आत्मीक सत्वकी भावनासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतके भोजनसे तृप्ति होरही है वह मुनि लौकिक भोजनकी इच्छा नहीं करता है । यहीं उस साधुका निश्वयसे आहार रहित आत्माकी भावनारूप उपवास नामका तप है । इसी निश्चय उपवासरूपी तपकी इच्छा करनेवाले साधु अपने परमात्मतत्व से भिन्न त्यागने योग्य अन्य अन्नकी निर्दोष मिक्षाको लेते हैं तो भी वे अनशन आदि गुणोंसे भूषित साधुगण आहारको ग्रहण करते हुए भी अनाहार होते हैं । तैसे ही जो साधु क्रिया रहित परमात्मा की भावना करते हैं वे पांच समितियोंको पालते हुए विहार करते हैं तौ भी वे बिहार नहीं करते हैं । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने सुनियोंकी आहार व विहार की प्रवृत्तिका आदर्श बताया है। वास्तवमें शारीरिक क्रियाका कर्ता कर्ता