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तृतीय खण्ड। [१६३ लद्धे ण होति तुहा ण वि य अलेधण दुम्मणा होति। दुक्खे सुहेसु मुणिणो मन्मत्थमणाकुला होति ।। ८१६ ।। णवि ते अभित्थुणंति य पिंडत्यं णवि य किंचि जायते । मोणव्वदेण मुणिणो चरति भिक्खं अभासंता ॥ ८१७ ॥
भावार्थ-जैसे गाड़ीका पहिया लेपके विना नहीं चलता है वैसे यह शरीर भी भोजन विना नहीं चल सक्ता है ऐसा विचार मुनिगणप्राणोंकी रक्षाके निमित्त कुछ भोजन करते हैं । प्राणोंकी रक्षा धर्मके निमित्त करते हैं तथा धर्मको मोक्षके लिये आचरण करते हैं। वे मुनि स्वादकी इच्छा किये बिना ढंडा, गरम, रूखा, सूखा, चिकना, नमकीन व विना निमकका जो शुद्ध भोजन मिले उसे करलेते हैं। भोजन मिलनेपर राजी नहीं होते, न मिलनेसे खेद नहीं मानते हैं। मुनिगण दुःख या सुखमें समानभाव रखते हुए आकुलता रहित रहते हैं । वे भोजनके लिये किसीकी स्तुति नहीं करते न याचना करते हैं-विना मुंहसे कहे मौनव्रतसे मुनिगण भिक्षाके लिये जाते हैं ।। ४२॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि पंद्रह प्रमाद हैं इनसे साधु प्रमादी हो सका है। कोहादिएहि चउविहि विकहाहि तहिंदियाणपत्थेहि । सगणो हवादि पपत्तो उवजुत्तो इणिदाहिं ॥ ४३ ।। मोधादिभिः चतुभिरपि विकथाभिः तथेन्द्रियाणामषैः । श्रमणो भवति प्रमत्तो उपयुक्तः स्नेहनिद्राभ्याम् ॥ ४३ ॥
अन्वय सहितसामान्यार्थ-(चउविहि कोहादिएहि विकहाहि) चार प्रकार क्रोधसे व चार प्रकार विकथा - स्त्री, भोजन, चोर,. रामा कथासे ( तहिदियाणमत्थेहिं ) तथा पांच इंद्रियोंके विषयोंसे