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१२८३ श्रीप्रवचनसारटोका। हैं उसके नग्न परीसह, डांस मच्छर परीसह, शीत व उष्ण परीपहका सहना नहीं बन सक्ता है । जहांतक वस्त्रकी आवश्यका हो वहांतक श्रावकोंका चारित्र पालना चाहिये । जिन लिंग तो नग्न रूपमें ही है। जिसके चित्तमें परम निर्भमत्त्व भाव जग जावे वही वस्त्रादि त्याग दिगम्बर साधु हो पूर्ण अहिंसादि पांच महाव्रतोंको पालकर सिद्ध होनेका यत्न करे ऐमा भाव है ॥२३-२४-२५॥
उत्थानिका-आगे आचार्य कहते हैं कि जो परिग्रहवान है उसके नियमसे चित्तकी शुद्धि नष्ट होजाती है:किय तम्मि पत्थि मुच्छा आरम्मो वा असंजमो तस्स । तथ परदबम्मि रदो कधगप्पाणं पसाधयदि ॥ २६ ॥ कथं तस्मिन्नास्ति मूर्छा आरम्भो वा असंयमस्तस्य । तथा परद्रव्ये रतः कथमात्मानं प्रसाधयति ॥ २६॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( तम्मि ) उस परिग्रह सहित साधुमें (किध) किस तरह (मुच्छा) परद्रव्यकी ममतासे रहित चत. न्यके चमत्कारकी परिणतिसे भिन्न मूर्छा ( वा आरम्भो ) अथवा मन वचन कायकी क्रिया रहित परम चेतन्यके भावमें विघ्नकारक आरम्भ (गत्थि) नहीं है किन्तु है ही (तस्स असंजमो) और उस परिग्रहवानके शुद्धात्माके अनुभवो विलक्षण असंयम भी किस तरह नहीं है किन्तु अवश्य है (तध) तथा (परदव्वमि रदो) अपने आत्मा द्रव्यसे मिन्न परद्रव्यमें लीन होता हुआ (कधमप्पाणं पसाधयदि) किस तरह अपने आत्माकी साधना परिग्रहवान पुरुष कर सका है अर्थात् किसी भी तरह नहीं कर सकता है।