________________
• तृतीय खण्ड।
[१२७ और निर्भय शुद्ध आत्मतत्वकी भावनासे शून्य होकर दूसरे चोर आदिकोंसे भय करता है (पालयदि ) तथा परमात्मभावनाकी रक्षा छोड़कर उनकी रक्षा करता है।
भावार्थ-यदि कोई कहे हमारे शास्त्रमें यह बात कही है कि साधुको वस्त्र ओढ़ने बिछानेको रखने चाहिये या दूध आदि भोजन लेने के लिये पात्र रखना चाहिये तो उसके लिये आचार्य दूषण देते हैं कि यदि कोई महाव्रतोंका धारी साधु होकर निसने आरम्भजनित हिंसा भी त्यागी है व सर्व परिग्रहके त्यागकी प्रतिज्ञा ली है ऐसा करे तो वह पराधीन व आरम्भवान हो जावे उसको वस्त्र के आधीन रहकर परीसहोंके सहनेसे व घोर तपस्याके करनेसे उदासीन होना हो तथा उसको उन्हें उठाते, धरते, साफ करते, आदिमें आरम्भ करना हो वस्त्रको झाड़ने, धोते, सुखाते, अवश्य प्राणियोंकी हिंसा करनी पड़े तब अहिंसाव्रत न रहे उनकी रक्षाके भावसे चोर आदिसे भय बना रहे तब भय परिग्रहका त्याग नहीं हुआ इत्यादि अनेक दोष आते हैं। वास्तवमें जो सर्व आरम्भ व परिग्रहका त्यागी है वह शरीरकी ममताके हेतुसे किसी परिग्रहको नहीं रख सक्ता है। पीछी कमण्डल तो जीवदया और शौचके उपकरण हैं उनको संयमकी रक्षार्थ रखना होता है सो वे भी मोर पंखके व काठके होते हैं उनके लिये कोई रक्षाका भय नहीं करना पड़ता है, न उनके लिये कोई आरम्भ करना पड़ता है, परन्तु वस्त्र तो शरीरकी ममतासे व भोजन पात्र भोजन हेतुसे ही रखना पड़ेंगे फिर इन वस्त्रादिके लिये चिंता व अनेक आरम्भ करना पड़ेंगे इसलिये साधुओंको रखना उचित नहीं है ! जो वस्त्र रखता