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तृतीय बण्ड । . . [१२६ ___ भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने और भी स्पष्ट कर दिया है कि जिसके पास रश्चमात्र भी वस्त्रादिकी परिग्रह होगी उसको उसमें मूर्छा अवश्य होगी तथा उसके लिये कुछ आरम्भ भी करना पड़ेगा। इच्छा या आरम्भननित हिंसा होनेसे असंयम भी हो नायगा। साधुको अहिंसा महाव्रत पालना चाहिये सो न पल सकेगा तथा परद्रव्यमें रति होनेसे आत्मामें शुद्धोपयोग न हो सकेगा, जिसके विना कोई भी साधु मोक्षका साधन नहीं कर सक्ता । इस तरह साधुके लिये रंचमात्र भी परिग्रह ममताका कारण है जो सर्वथा त्यागने योग्य है।
वस्त्रादि परिग्रहके निमित्तसे अवश्य उनके उठाने, धरने " झाड़ने, घोने, सुखानेमें आरंभी हिंसा होगी इससे सावंद्य कर्म हो नायगा । साधुको प पाश्रवके कारण सावध कर्मका सर्वथा त्याग है। ऐसा ही श्री मूलाचार अनगारभावना अधिकारमें कहा है:। तणरुक्खहरिच्छेदणतयपत्तपवालकंदमूलाई।
फलपुष्फवीयंघादं ण करिति मुणी न कारिति ॥ ३५ ॥ पुढयीय समारंभ जलपवणग्गोतसाणमारम्भं ।। ण करेति ण कारेति य कारेंतं णाणुमोदंति ॥ ३६ ॥
भावार्थ-मुनि महाराज तृण, वृक्ष, हरितघासादिका छेदन नहीं करते न कराते हैं, न छाल, पत्र, प्रवाल, कंदमूलादि फल फूल बीजका घात करते न कराते हैं, न वे पृथ्वी, जल, पवन, अग्नि.
अथवा त्रस घातका आरंभ करते हैं न कराते हैं, न इसकी अनु• मोदना करते हैं। पात्रकेशरी स्तोत्रमें श्री विद्यानंदनी स्वामी कहते हैं: