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तृतीय खण्ड ।
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असावधान हो जायेगा वह निरन्तर हिंसाका भागी होगा । मन पायके आधीन हो गया, उसके भावप्राणोंकी हिना होचुकी, परन्तु जो कोई भावों में वीतरागी है-अपने चलने आदि कार्यों सवधानीमे वर्तता है, फिर भी अकस्मात् कोई दूसरा मेनु मरणकर जाये तो यह अप्रमादी जीवहिंसाका भागी नहीं होता है क्योकि उसने हिंसाक भाव नहीं किये थे किन्तु अहिंसा सावधानीक भाव किये थे । वाह्य किसी जंतुके प्राण न भी घाते
परन्तु जहां अपने भावोंमें रागद्वेपादि विकार होगा वहां अवयहिमा है। वीतरागता होते हुए यदि शरीरकी सावधान चेष्ठापर भी कोई तुके प्राण पीड़ित हों तो वह वीतरागी हिंसा करने - वाला नहीं है।
श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थमें श्री अमृतचंद्र आचार्यने हिंसा व अहिंसाका रूप बहुत स्पष्ट बता दिया है :
आत्मपरिणामहिसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यवोधाय ॥ ४२ ॥ यत्खलु कपाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणां । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ||४३|| प्रार्दुभावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिरिति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥ युकाचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणायि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥ ४५ ॥ भावार्थ - जहां आत्मा के परिणामोंकी हिंसा है वहीं हिंसा है। अनृत, चोरी, कुशील, परिग्रह ये चार पाप हिसाहीके उदाहरण हैं । वास्तवमें क्रोधादि कपाय सहित मन, वचन, कायके द्वारा जो
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