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१०२] श्रीप्रवचनसारंटीका। योगकी शुद्धता या वीतराग परिणतिमें सावधान हैं उनके भावोंमें प्रमाद नहीं आता । वे प्रयत्न करके ध्यानस्थ रहते हैं और जब शरीरकी आवश्यक्तासे वैठना, चलना, खडे होना, शास्त्र, पीछी, कमण्डलु उठाना आदि कायकी तथा व्याख्यान देना आदि वचनकी क्रियाएं करनी होती हैं तव भी अपने भावोंमें कोई संक्लेशभाव या अशुद्ध भाव या असावधानीका भाव नहीं लाते हैं। जो साधु अपने वीतराग भावकी सम्हाल नहीं रखते और उठना, बैठना, चलना आदि कार्योको करते हुए क्रोध, मान, माया, लोभके वशीभूत हो दोष लगाते अथवा रागडेप या अहंकार ममकार करते वे साधु निरन्तर हिंसा करनेवाले होजाते हैं, क्योंकि वीतराग भाव ही अहिंसक भाव है उसका भंग सो ही हिंसा है । हिंसा दो प्रकारकी होती है एक भाव हिंसा दूसरी द्रव्यहिंसा । आत्माके शुद्ध भावोंका जहां घात होता हुआ रागद्वेष आदि विकारभावोंका उत्पन्न हो जाना सो भाव हिंसा है। स्पर्शादि पांच इंद्रिय, मन वचन काय तीन बल, आयु, श्वासोश्वास इन दस प्राणोंका सबका व किसी एक दो चारका भाव हिंसाके वश हो नाश करना व उनको पीड़ित करना सो द्रव्यहिंसा है । भाव प्राण आत्माकी ज्ञान चेतना है, द्रव्य प्राण स्पर्शनादि दश हैं । इन प्राणोंके घातका नाम हिंसा है । कहा है:प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।
(तत्वार्थसूत्र उमा० अ० ७ सू० १३) भावार्थ:-कषाय सहित मनवचनकाय योगके द्वारा प्राणोंको पीड़ित, करना सो हिंसा है। जो साधु भावोंमें प्रमादी या