________________
तृतीय खण्ड ।
[ १०१
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि छंद या भंग शुद्धात्माकी भावनाका निरोध करनेवाला है ।
अपयत्ता वा चरिया सणाश्णठाणचंकमादीसु । समणम अव्वकालं हिंसा मा संततति मदा ॥ १६ ॥ अता या चर्या शयनासनस्थानचक्रमणादिषु । भ्रमणस्य सर्वकालं हिंसा सा सन्ततेति मता ॥ १६ ॥ अनि मामान्यार्थः - (वा) अथवा (समणस्स) साधुकी ( सणासठाणचमादी ) शयन, आसन, खडा होना, चलना, स्वाध्याय, तपश्चरण आदि कार्यों में ( अपयत्ता चरिया) प्रयत्नरहित चेष्टा अर्थात् कपायरहित स्वमंवेदन ज्ञानसे छूटकर जीवढ्याकी. रक्षासे रहित संलेश भाव सहित जो व्यवहारका वर्तना है (सा) यह (सव्यकाल) सर्वकालमें ( संमतत्ति हिसा ) निरन्तर होनेवाली हिंसा अर्थात गुढोपयोग लक्षणमई मुनिपदको छेद करनेवाली हिंसा (मदा) मानी गई है ॥
विशेषार्थ - यहां यह अर्थ है कि बाहरी व्यापाररूप शत्रुओंको तो पहले ही मुनियोंने त्याग दिया था परन्तु बैठना, चलना, सोना आदि व्यापारका त्याग हो नहीं सक्ता- इस लिये इनके निमित्तसे अन्तर क्रोध आदि शत्रुओं की उत्पत्ति न हो- साधुको उन कार्योमं सावधानी रखनी चाहिये । परिणाममें संक्लेश न करना चाहिये ।
भावार्थ - इस गाथा आचार्यने व्रतभंगका स्वरूप बताया है। निश्रयसे साधुका शुद्धोपयोगरूपी सामायिकम वर्तना ही व्रत है । व्यवहारमें अठाईस मूलगुणोंका साधन है । जो मुनि अपने उप