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श्रीप्रवचनसारढोका ।
भाव प्राणों और द्रव्य प्राणोंका पीड़ित करना वही असली हिसा है । निश्चयसे रागद्वेषादि भावोंका न उपजना अहिंसा है और उन्हींका होजाना हिंसा है यह जैन शास्त्रोंका संक्षेपमें कथन है । रागादिके वश न होकर योग्य सावधानीसे आचरण करते हुए यदि किसीके द्रव्य प्राणोंका पीड़न हो भी तौभी हिंसा नहीं है । अभिप्राय यही है कि मूल कारण हिंसा होनेका प्रमादभाव है । अप्रमादी हिंसक नहीं है, प्रमादी सदा हिंसक है ।
पंडित आशाधरने अनागारधर्मामृत में इसतरह कहा है : -- रागाद्य गतः प्राणव्यपरोपेऽप्यहिंसकः । स्यात्तदव्यपरोपेपि हिंस्रो रागादिसं श्रितः || २३ / ४ ॥ भावार्थ - रागादिके न होते हुए मात्र प्राणोंके घातसे जीव हिंसक नहीं होता, परन्तु यदि रागादिके वश है तो बाह्य प्राणोंके घात न होते हुए भी हिंसा होती है । और भी— 1
प्रमत्तो हि हिनस्ति स्वं प्रागात्माऽऽतङ्कतायनात् । परोनु म्रियतां मा वा रागाद्या ह्यरयोऽङ्गिनः ॥ २४ ॥ भावार्थ - प्रमादी जीव व्याकुलताके रोगसे संतापित होकर पहले ही अपनी हिसा कर लेता है, पीछे दूसरे प्राणीकी हिंसा हो व मत हो । जैसे किसीने किसी को कष्ट देनेका भाव किया तब वह तो भाव होते ही हिंसक होगया । भाव करके जब वह मारनेका यत्न करे वह यत्न सफल हो व न हो कोई नियम नहीं है। वास्तमें रागादि शत्रु ही इस जीवके शत्रु हैं । इन्हींसे. अपनी शांति नष्ट होती व कर्मका बन्ध होता है । और भी.
परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम् । हिंसागायुद्युभूतिरहिंसा तदनुद्भवः ॥ २६ ॥
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