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८८] श्रीप्रवचनसारटोका । पनादि योग करे, उनकी पुस्तक पीछी आदि उपकरण विना पृछे लेलेवे, प्रमादसे आचार्यके वचनको न पाले, संघनाथको विना पूछे संघनाथके प्रयोजनसे नावे आत्रे, परसंघसे विना पूछे अपने संघमें आवे, देशकालके नियमसे अवश्य कर्तव्य व्रत विशेपको धर्मकथादिमें लगकर भूल जावे, तथा फिर याद आनेपर करे तो मात्र गुरुसे विनयसे कहनेरूप आलोचना ही प्रायश्चित है । पांच इंद्रिय व मन सम्बन्धी दुर्भाव होनेपर, आचार्यादिके हाथ पग आदि मदनगें व्रत समिति गुप्तिमें अल्प आचार करनेपर, चुगली व कलह आदि करनेपर, वैयावृत्य स्वाध्यायादिमें प्रमाद करनेपर, गोचरीको जाते हुए स्पर्श लिंगके विकारी होनेपर आदि अन्य संक्लेश कारणोंपर देवसिक व रात्रिक व भोजन गमनादिमें स्वयं प्रतिक्रमण करना ही प्रायश्चित्त है।
लोच, नख छेद, स्वप्नदोष, इंद्रियदोष व रात्रि भोजन सम्बन्धी कोई सूक्ष्म दोष होनेपर प्रतिक्रमण और आलोचना दोनों प्रायश्चित्त होते हैं । मौनादि विना आलोचना करने, उदरसे कृमि. निकलने, शर्दी, देशमशक आदि महावायुके संघर्ष सम्बन्धी दोष होने, चिकनी जमीन हरेतृणकी चड़पर चलने, जंघामात्र जलमें प्रवेश होने, अन्यके निमित्तकी वस्तुको अपने उपयोगमें करने, नदी पार करने, पुस्तक व प्रतिमाके गिर जाने, पांच स्थावरोंका घात होने, विना देखे स्थानमें शरीर मल छोड़ने आदि दोषोंमें अथवा पक्ष मास आदि प्रतिक्रमणके अंतकी क्रिया व व्याख्यान देनेके अंतमें कायोत्सर्ग करना ही प्रायश्चित्त है । मूत्र व मल छोड़नेपर भी कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है।