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तृतीय खण्ड।
[८६ जैसे वैद्य रोगीकी शक्ति आदि देखकर उसका रोग निस तरह मिटे वैसी उसके अनुकूल औषधि देता है वैसे आचार्य शिप्यका अपराध व उसकी शक्ति, देश, काल आदि देखकर मिससे उसका अपराध शुद्ध हो जावे ऐसा प्रायश्चित्त देते हैं।
जबतक निर्विकल्प समाधिमें पहुंच नहीं हुई अर्थात् शुद्धोपयोगी हो श्रेणीपर आरूढ़ नहीं हुआ तबतक सविकल्प ध्यान होने व आहार विहारादि क्रियाओंके होनेपर यह विलकुल असंभव है मन, वचन, काय सम्बन्धी दोप ही न लगे । जो साधु अपने लगे दोषोंको ध्यानमें लेता हआ उनके लिये आलोचना प्रतिक्रमण करके प्रायश्चित्त लेता रहता है उसके दोपोंकी मात्रा दिन पर दिन घटती जाती है । इसी क्रमसे वह निर्दोपताकी सीढ़ीपर चढकर निर्मल सामायिकभावमें स्थिर होनाता है।
इस तरह गुरुकी अवस्थाको कहते हुए प्रथम गाथा तथा प्रायश्चित्तको कहते हुए दो गाथाएं इस तरह समुदायसे तीसरे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई ॥ १२ ॥ ___ उत्थानिका-आगे निर्विकार मुनिपनेके भङ्गके उत्पन्न करनेवाले निमित्त कारणरूप परद्रव्यके सम्बन्धोंका निषेध करते हैं:----
अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे । समणो विहरदु णिच्च परिहमाणो णिन्धाणि ॥१३॥ अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये । श्रमणो विहरतु नित्यं परिहरमाणो निवन्धान् ॥ १३ ॥
अन्वय सहित सामान्याथ-( समणो ) शत्रु मित्रमें समान भावधारी साधु ( णिवन्धाणि परिहरमाणो) चेतन अचेतन मिश्न