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तृतीय खण्ड।
[८७ पोछीको आगे करके आप सर्व बाल वृद्ध मुनियोंको नमस्कार करे, परंतु बदलेमें कोई मुनि उसको नमन न करें, पीछीको उल्टी रवग्ये, मौनव्रतसे रहे, जघन्य पांच पांच दिन तथा उत्कृष्ठ छः छः मासका उपवास करे । ऐसा परिहार वारह वर्ष तकके लिये हो मता है। ___यदि वहीं मुनि मानादि कपाय वश फिर वैसा अपराध करे तो उसको आचार्य दूसरे संघमें भेजें, वहां अपनी आलोचना करे वे फिर तीसरे संघमें भेजें । इसतरह सात संघके आचार्योके पास वह अपना दोप कहे तब वह सातमा आचार्य फिर जिसने शुरुमें भेना था उसके पास भेज दे। तब वहीं आचार्य जो प्रायश्चित दें मो ग्रहण करें। यह सहपरगणअनुपस्थापन नामका भेद है। ___ फिर वही मुनि यदि और भी बड़े द्रोपोंसे दूपित हों तव चार प्रकार संघके सामने उसको कहें यह महापापी, आगम बाहर है, बंदनेयोग्य नहीं, तब उसे प्रायश्चित्त देकर देशसे निकाल दें वह अन्य क्षेत्रमें आचार्यद्वारा दिये हुए प्रायश्चित्तको आचरण करे। ( नोट-इसमें भी कुछ कालका नियम होता है, क्योंकि परिहारकी विधि यही है कि कुछ कालके लिये ही वह साधु त्यागा जाता है । ) जैसा श्री तत्वार्थसारमें अमृतचंद्रस्वामी लिखते हैं__"परिहारस्तु मासादिविभागेन विवर्जनम् ॥ २६-७"
१० श्रद्धान-जो साधु श्रद्धानभ्रष्ट होकर अन्यमती हो गया हो उसका श्रद्धान ठीक करके फिर दीक्षा देना सो श्रद्धान प्रायश्चित्त है । अनगार धर्मामृत सातवें अध्यायके ९३ वें श्लोककी व्याख्यामें यह कथन है कि जो कोई आचार्यको विना पूछे आता