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८६] श्रीप्रवचनसारटोका ।
५ तप-जो दोषकी शुद्धिके लिये उपवास, रसत्याग आदि तप किया जाय सो तप प्रायश्चित्त है।
६ छेद-बहुतकालके दीक्षित साधुका दीक्षाकाल पक्ष, मास, वर्ष, दोवर्ष घटा देना सो छेद प्रायश्चित्त है। इससे साधु अपनेसे नीचेवालोंसे भी नीचा होजाता है। : ७ मूल-पार्श्वस्थादि साधुओंको नो बहुत अपराध करते हैं उनकी दीक्षा छेदकर फिरसे मुनि दीक्षा देना सो मूल प्रायश्चित्त है। जो साधु स्थान, उपकरण आदिमें आशक्त होकर उपकरण करावे, सो पार्श्वस्थ साधु है।
जो वैद्यक, मंत्र, ज्योतिपं व राजाकी सेवा करके समय गमाकर भोजन प्राप्त करे सो संसक्त साधु है । जो आचार्यके कुलको छोड़कर एकाकी स्वच्छन्द विहारी, जिन बचनको दूपित करता हुआ फिरे सो मृगचारी साधु है । जो जिन वचनको न जानकर ज्ञान चारित्रसे भृष्ट चारित्रमें आलसी हो सो अवसन्न साधु है। जो क्रोधादि कषायोंसे कलुषित हो व्रतशील गुणसे रहित हो, संघका अविनय करानेवाला हो सो कुशील साधु है। इन पांच 'प्रकारके साधुओंकी शुद्धि फिरसे दीक्षा लेनेपर होती है।
परिहार-विधि सहित अपने संघसे कुछ कालके लिये दूर कर देना सो परिहार प्रायश्चित्त है । ये तीन प्रकार होता है-(१) गणपतिबद्ध या निजगणानुपस्थान-जो कोई साधु किसी शिष्यको किसी संघसे बहकावे, शास्त्र चोरी करे व मुनिको मारे आदि पाप करे तो उसको कुछ कालके लिये अपने ही संघमें रखकर यह आज्ञा देना कि वह संघसे ३२ बत्तीस दंड (हाथ) दूर रहकर बैठे चले,