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तृतीय खण्ड ।
अतीचार, नदी तरण, महावन गमन आदि कार्यों में जो शरीरका ममत्व त्यागकर अन्तर्महूर्त्त, दिवस, पक्ष, मार्स आदि काल तक ध्यान में खडे रहना सो कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग है । (नौ णामोकार मंत्रको सत्ताईस वासोवास में जपना ध्यान रखते हुए सो एक कायोत्सर्ग प्रसिद्ध है । प्रायश्चित्तमें यह भी होता है कि इतने ऐसे कायोत्सर्ग करो ) अनगार धर्मामृतमें अ० ८ में है:
सप्तविंशतिरुछ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे । सति पंचनमस्कार नवधा चिन्तिते सति ॥
भावार्थ - ९ दफे संसारछेदक णमोकार मन्त्रको पढ़ने में २७ श्वासोश्वास लगाना चाहिये। इसी श्लोकके पूर्व है कि एक उछ्वासमें णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं पढ़े, दूसरे में णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं पट्टे, तीसरेमें णमो लोए सव्वसाहूण पढ़े। कितने उछ्वासोका कायोत्सर्ग कare करना चाहिये उसका प्रमाण इस तरह है । देवसिक प्रतिक्रमणके समय १०८ उछ्वास, रात्रिकमें ५४, पाक्षिकमें तीन सौ ३००, चातुर्मासिकमें ४००, सांवत्सरिकमें ५०० जानने । २५ पचीस उछ्वास कायोत्सर्ग नीचेके कार्योंके समय करें मूत्र करके, पुरीप करके, ग्रामान्तर जाकर भोजन करके, तीर्थंकरकी पंचकल्याणक भूमि व साधुकी निपिद्धिकाकी वन्दना करने में । तथा २७ सत्ताईस उच्छ्रवास कायोत्सर्ग करे, शास्त्र स्वाध्याय प्रारम्भमें व उसकी समाप्तिमें तथा नित्य वंदनाके समय तथा मनके विकार होनेपर उसकी शांतिके लिये । यदि मनमें जन्तुघात, असत्य, अदत्त ग्रहण, मैथुन व परिग्रहका विकार हो तो १०८ उच्छवास कायोत्सर्ग है ।