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८४] श्रीप्रवचनसारटीका । संयम विराधनाके भाव विना कायचेष्टासे कुछ दोष लग जाना सो प्रतिक्रमण मात्रसे शुद्ध होता है । प्रतिक्रमण सात प्रकार है
१. देवसिक-जो दिनमें भए अतीचारको शोधना। । । २ रात्रिक-जो रात्रिमें भए अतीचारको शोधना। ३ ऐपिर्थिक-ईयर्यापथ चलनेमें जो दोष होगया हो उसको
शोधना। ४ पाक्षिक-जो पन्द्रह दिनके दोषोंको शुद्ध करना । ५ चातुर्मासिक-जो कार्तिकके अंतमें और फाल्गुणके अंतमें
करना, चार चार मासके दोषोंको दूर करना । ६ सांवत्सरिक-जो एक वर्ष बीतनेपर आषाढ़के अंतमें ___ करना १ वर्षके दोषोंको शोधना। ७ उत्तमार्थ-जन्मपर्यंत चार प्रकार आहारका त्याग करके
सर्व जन्मके दोषोंको शोधना। इस तरह सात अवसरोंपर प्रतिक्रमण किया जाता है। बैठने, लोच करने, गोचरी करने, मलमूत्र करने आदिके समयके प्रतिक्रमण यथासंभव इनहीमें गर्मित समझ लेना चाहिये ।
३ प्रायश्चित्त तदुभय-दुष्टस्वम संक्लेशभावरूपी दोषके दूर करनेके लिये आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करने चाहिये सो तदुभय प्रायश्चित्त है।
४ विवेक-किसी अन्न आदि पदार्थमें आशक्ति हो जानेपर उस दोषके मेटनेके लिये उस अन्नपान स्थान उपकरणका त्याग कर देना सो विवेक है।
४ व्युत्सर्ग-मल मूत्र त्याग, दुःस्वम, दुश्चिन्ता, सूत्र संबंधी