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न्यायशास्त्र सुबोधटीकायां षष्ठः परिच्छेदः ।
अर्थ-.. धर्म (पुण्य ) परलोक में दुःखदायी होता है, क्योंकि वह पुरुष के आश्रय से होता है । जो जो पुरुष के आश्रय से होता है वह बह दुःखदायी होता है, जैसे अधर्म (पाप)। यह पक्ष पागम से बाधित है, क्योंकि आगम में धर्म सुखदायी और अधर्म दुःखदायी बतलाया गया है । यद्यपि दोनों पुरुष के आश्रय से होते हैं, तथापि वे भिन्न स्वभाव वाले हैं ॥ १८ ॥
संस्कृतार्थ-प्रेत्यासुखदो धर्मः, पुरुषाश्रितत्वात् अधर्मवत् । यो यः पुरुषाश्रितः स स: दुःखदायी, यथा अधर्मः। प्रत्रायं पक्ष: आगमबाधितो वर्तते । यतः आगमे धर्मः सुखदायी प्रोक्तः, अधर्मश्च दुःखदायी प्रोक्तः । यद्यपि द्वावपीमी पुरुषाश्रितो; तथापि भिन्नस्वभावौ विद्धते ॥ १८ ॥
लोकबाधितपक्षाभास का उदाहरणशचि नरशिरःकपालं, प्राण्यायंगत्वाच्छंखशुक्तिवत् ॥१९॥
अर्थ - मनुष्य के शिर का कपाल ( खोपड़ी) पवित्र होता है, क्योंकि वह प्राणी का अङ्ग है। जो प्राणी का अङ्ग होता है वह पवित्र होता है, जैसे शंख और सीप । यह पक्ष लोकबाधित है, क्योंकि लोक में प्राणी का अङ्ग होते हुये भी कोई चीज पवित्र और कोई अपवित्र मानी गई है ॥ १६ ॥
संस्कृदार्थ-शुचि नरशिरः कपालं, प्रापयङ्गत्वात्, शंखशुक्तिवत् । यञ्च प्राण्यङ्गं तत् पवित्रं, यथा शंख:, शुक्तिश्चेति । अत्रायं पक्षो लोकबाधितो विद्यते । यतो लोके प्राण्यङ्गत्वेऽपि किञ्चिद् वस्तु पवित्रं ; किञ्चिच्चापवित्रं मतम् ॥ १६ ॥ स्ववचनबाषितपक्षाभास का उदाहरण
লা লা , গুত্বে অজা प्रसिद्धबल्लयावत् ॥ २०॥