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श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे . -
विशेषार्थ - इन हेतुथों में साध्य से विरुद्ध व्याप्य की उपलब्धि होती है । इसलिये इन्हें विरुद्धोपलब्धिहेतु कहते हैं। यहां पर सब हेतुत्रों के बाद में वह पद जोड़ना चाहिये जिसका कि आप निषेध करना चाहते हैं । ये हेतु उसी के विरुद्ध की उपलब्धि रूप पड़ जावेंगे ॥६७॥
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विरुद्धव्याप्योपलब्धे रुदाहरणम्, विरुद्ध व्याप्योपलब्धि का दृष्टान्त - नास्त्यत्र शीतस्पर्शः श्रौष्ण्यात् ॥ ६८ ॥
विरुद्ध प्रग्नि
पर्थ - यहां शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि शीतस्पर्श से 'की व्याप्य उष्णता मौजूद है। जिसका व्याप्य मौजूद; है वह उसी को जनावेगा । अतएव यहां श्रौष्ण्यत्वहेतु प्रग्नि को ही साबित करेगा, इससे यह हेतु विरुद्धव्याप्योपलब्धिहेतु कहा जावेगा ॥ ६८ ॥
संस्कृतार्थ - नास्त्यत्र शीतस्पर्शः श्रोष्ण । प्रत्र प्रतिषेधरूपसाध्यात् शीतस्पर्शात् विरुद्धस्याग्नेः व्याप्यस्वरूपा उष्णता विद्यते । यस्य व्याप्यं विद्यते तत्तदेव साधयिष्यति । इत्थमत्र श्रौष्ण्यत्वहेतुः शीतस्पर्शसाध्या विरुद्धव्याप्यम् अग्निमेव साधयिष्यति । श्रतोऽयं हेतु विरुद्धव्याप्योपलब्विहेतुः भवेत् । 2060 CHA
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विरुद्ध कार्योपलब्धेरुदाहरणम्, विरुद्धकार्योपलब्धि का उदाहरण
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नास्त्वत्र शोतस्पर्शो धूमात् ॥ ६९ ॥
अर्ध-- यहां शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि शीतस्पर्श से विरुद्ध अग्नि का कार्य धूम मौजूद है । अग्नि का कार्य घूम रह कर अग्नि को हो जनावेगा; शीतस्पर्श को नहीं, इससे यहां यह घूमत्वहेतु विरुद्धकार्योप
लब्धिहेतु होगा ॥६६॥ संस्कृतार्थ - शीतस्पर्शो रूपसाध्यात् शीतस्पर्शात् विरुद्धस्याग्नेः
:- नास्त्यत्र
धूमात् । प्रत्र प्रतिषेधकार्यस्वरूपो घूमः उप
लभ्यते । श्रग्नेः कार्य स्थित्वाग्निमेव साधयिष्यति, नो शीतस्थ