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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां तृतीयः परिच्छेदः ।
अर्थ – रस से सामग्री का और कारणरूप सामग्री से रूप का अनुमान मानने वाले बौद्धों ने कहीं पर कारणरूप हेतु स्वयं माना ही है; जहाँ पर कि कारण की शक्ति की मणि या मंत्र वर्ग रह से रुकावट नहीं होगी तथा अन्य किसी कारण की कमी नहीं होगी। इसलिये कारणहेतु का निषेध नहीं किया जा सकता ॥ ५६ ॥
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संस्कृतार्थ – सौगतः प्राह - विधिसाधनं द्विविधमेव, स्वभावकार्य - भेदात् । कारणस्य तु कार्याविनाभावाभावाद् श्रलिङ्गत्वम् । नावश्यं कारणानि कार्यन्ति भवन्तीति वचनादिति । तदध्यसङ्गतम् - प्रास्वाद्यमानाद्धि रसात् तज्जनिका सामग्री अनुमीयते ततो रूपानुमानं जायते, प्राक्तंनो रूपक्षणः सजातीयं रूपक्षणान्तरलक्षणं कार्यं कुर्वन्नेव विजातीयरसलक्षणं कार्यं कुरुते इति रूपानुमानमिच्छद्भिः सौगतं किञ्चित्कारणं हेतुत्वेनाभ्युपगतमेव, रूपक्षणस्य सजातीयरूपक्षणान्तराव्यभिचारात् । एतेनेदमुक्तं यत् यस्मिन्कारणे सामर्थ्य प्रतिबन्धः कारणान्तर विकलता च नास्ति, तद्विशिष्टकारणं कार्योत्पत्तिनियामकत्वादवश्यमेव कार्यानुमापकं भवतीति भावः ॥ ५६ ॥
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विशेषार्थ - - जहाँ कारण को शक्ति मणि या मंत्र वगैरह से रोक दी जावेगी अथवा किसी सहायक कारण की कमी होगी, वहाँ कारण कार्य का गमक (जनाने वाला) नहीं होगा, किन्तु दूसरी जगह तो प्रव श्य होगा । इसलिये बोद्ध जो यह कहते थे कि 'कार्यहेतु और स्वभावहेतु ये दोनों ही विधि के साधक हैं, कारणहेतु नहीं उनका कहना ठीक नहीं
॥५६॥
पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओं की अन्यहेतुनों से भिन्नता-न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्ति व कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥५७॥