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न्यायशास्त्र सुबोघटीकायां तृतीयः परिच्छेदः ।
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अर्थ-समर्थन ही वास्तविक हेतु का स्वरूप है और वही अनुमान का अंग है। क्योंकि साध्य की सिद्धि में उसी का उपयोग होता है ॥४१॥ ... संस्कृतार्थ-किञ्च .. दृष्टान्तादिकमभिधायापि समर्थनमवश्यं .. करणीयमसमर्षितस्याहेतुत्वादिति । तथा च समर्थनमेव वास्तविकहेतुस्वरूपमनुमानावयवो वा भवतु, साध्यंसिद्धौ तस्यैवोपयोगानोदाहरणादिकस्येति ॥४॥
विशेषार्थ-दोषों का प्रभाव दिखाकर हेतु के पुष्ट करने को समर्षन कहते हैं ॥४१॥ :: बालकों को समझाने के लिये उदाहरण, उपनय और
निगमन की आवश्यकता. बालव्युत्पयर्थ तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासी न वादे ऽनुपयोगात् ॥४२॥
अर्थ-अल्पज्ञानियों को समझाने के लिये उदाहरण, उपनय और निगमन की स्वीकारता शास्त्र में ही है, वादकाल में नहीं। क्योंकि वाद करने का अधिकार विद्वानों को ही होता है और वे पहले से ही व्युत्पन्न रहते हैं, इसलिये उनको उदाहरणादि का प्रयोग उपयोगी नहीं होता ॥४२॥ :: .. संस्कृतार्थ-मन्दमतीनां शिष्याणां सम्बोधनार्थमुदाहरणादित्रयप्रयोगाभ्युपगमेऽपि तत्त्रयप्रयोगो वीतरागकथायामेव ज्ञातव्यो न तु विजगीषुकथायाम् । तत्र तस्यानुपयोगात् । न हि वादकाले शिष्याः । व्युत्पाद्याः व्युत्पन्नानामेव तत्राधिकारात ॥४२॥ . दृष्टान्तस्य भेदी, दृष्टान्त के भेद
वृष्टान्तो द्वेषा, अन्वयव्यतिरेकभेदात् ॥४३॥
अर्थ-दृष्टान्त के दो भेद है । अन्वयदृष्टान्त श्रीर व्यतिरेकदृष्टान्त।