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३८ श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे
संस्कृतार्थ- स्वानि च तानि आवरणानि स्वावरणानि, तेषां क्षयः उदयाभावः, तेषामेव सदवस्थारूप: उपशमः, तावेव लक्षणं यस्याः योग्यतायाः, तया हेतुभूतया प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापति (विषयीकरोति) प्रत्यक्ष मिति शेषः। निष्कर्षश्चायम्-कल्पयित्वापि तदुत्पत्ति, ताद्रूप्यां, तदध्यवसायं च प्रतिनियतार्थव्यवस्थापनार्थ योग्यतावश्यमभ्युपगन्तव्या ॥
विशेषार्थ-- ज्ञान को रोकने वाले कर्म बहुत और जुदे-जुदे हैं जिस बस्तु के ज्ञान को रोकने वाले कर्म का क्षयोपशयम हो जाता है वह पदार्थ ज्ञान का विषय होने लगता है। अर्थात् ज्ञान उसे ही जानने लगता है, दूसरे को नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि ज्ञान स्वावरणक्षयोपशम से पदार्थों की जुदी-जुदी व्यवस्था करता है। ऐसी हालत में ज्ञान पदार्थों से उत्पन्न होता है यह मानने की कोई प्रावश्यकता नहीं ॥६॥
एक यह भी बात है कि यदि पदार्थों से ही ज्ञान की उत्पत्ति मानोगे तो जो वस्तु नष्ट हो चुकी है उसका ज्ञान भी नहीं होना चाहिये, किन्तु ऐसा होता नहीं है। मृत, सड़ी, गली और गुमी हुई वस्तुओं का ज्ञान होता ही है, इसलिये भी वस्तु से ज्ञान की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं।
कारण होने से ज्ञेयरूपता मानने का निराकरणकारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः ॥१०॥
बौद्ध शंका करता है कि-जब ज्ञान किसी पदार्थ से नहीं उत्पन्न होकर भी पदार्थों को जानता है, तो एक ही ज्ञान सब पदार्थों को क्यों नहीं जान लेता? इसका निषेधक कौन है ? हम (बौद्धों) के यहाँ तो 'जो ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पन्न होगा, वह ज्ञान उसी पदार्थ को जानेगा अन्य को नहीं इस नियम से काम चल जाता है। इस शंका के उत्तर में यह नवम सूत्र कहा गया है।