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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां द्वितीयः परिच्छेदः ।
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है कि आलोक भी ज्ञान का कारण नहीं । अगर आलोक ज्ञान का कारण होता तो रात्रि में उल्लू को ज्ञान कभी नहीं होता ॥७॥
भी पदार्थों
ज्ञान के अर्थजन्यता और अर्थाकारता का खण्डनअतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ॥८॥ अर्थ - ज्ञान यद्यपि पदार्थों से उत्पन्न नहीं होता है तो को जानता है । जैसे दीपक घट पट प्रादि से उत्पन्न भी घट पट आदि को प्रकाशित करता है। इसी दिक के प्रकार नहीं होकर भी घटादिक को जानता है। जैसे दीपक घट के आकार को नहीं धारण करके भी घट को प्रकाशित करता है ॥ ८ ॥
नहीं होता है, तो
प्रकार ज्ञान, घटा
संस्कृतार्थ - ननु विज्ञानम् अर्थजन्यं सत् अर्थस्य ग्राहकं भवति, तदुत्पत्तिमन्तरेण विषयं प्रति नियमायोगात् । इति चेन्न – घटाचजन्यस्यापि प्रदीपादेः घटादेः प्रकाशकत्ववत्, अर्थाजन्यस्यापि ज्ञानस्यार्थ प्रकाशकत्वाभ्युपगमात् । एवमेव तदाकारत्वात् तत्प्रकाशकत्वमित्यप्ययुक्तम्प्रतदाकारस्यादि प्रदीपादेः घटादिप्रकाशकत्वावलोकनात् ॥८॥
श्रतज्जन्य और प्रतदाकार होने पर भी • प्रतिनियतार्थ जानने का कारण
स्वाचरणक्षयोपशभलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमयं व्यवस्थापयति ||९|| प्रत्यक्षमिति शेषः ॥
अर्थ - श्रपने प्रावरणकर्म के क्षयोपशमरूपी योग्यता से प्रत्यक्ष प्रमाण 'यह घट है और यह पट है' इस प्रकार पदार्थों को जुदी - जुदी व्यवस्था करता है । अर्थात् ज्ञान के श्रावारक कर्म का क्षयोपशम जैसेजैसे होता जाता है तैसे ही पदार्थ, ज्ञान का विषय होने लगता है