________________
३०
श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे
पट आदि को जानता हुआ अपने आप को भी जानता है।
संस्कृतार्थ-यथा दीपको घटपटादिकं परपदार्थ प्रकाशयन् स्वम् (दीपकम् ) अपि प्रकाशयति तथैव ज्ञानमपि घटपटादिपरपदार्थ जानत्सत् स्वमपि जानाति ॥ ११ ॥
विशेषार्थ- घटपटादिक का प्रकाशक दीपक यदि अपने आपको प्रकाशित नहीं करता तो उसके प्रकाशन के लिये दूसरे दीपक को भावश्यकता होती; परन्तु होती नहीं है। इस से सिद्ध होता है कि दीपक स्वा
और पर का प्रकाशक है। क्योंकि सर्वत्र दृष्ट पदार्थो से ही अदृष्ट पदार्थों की कल्पना की जाती है ।। ११॥
. प्रमाण के प्रामाण्य का निर्णयतस्यामाण्यं स्वतः परतश्च ॥ १३ ॥
अर्थ- उस प्रमाण का प्रामाण्य (सचाई, वास्तविकता या पदार्थ का यथावत् जानने का निर्णय।) दो प्रकार से होता है । अभ्यासदशा में
अन्य पदार्थ की सहायता बिना अपने आप और अनभ्यास दशा में अन्य . कारणों की सहायता से ।
संस्कृतार्थ-तस्य प्रमाणस्य प्रामाण्यस्य (सत्यतायाः वास्तविकतायाः, यथावद्विज्ञताया: वा) निर्णय: प्रकारद्वयेन जायते । अभ्यासदशायामन्यपदार्थसहायतां बिना स्वतः, अनभ्यासदशायाञ्चान्य कारणानां सहायत्तया ।। १३ ॥
विशेषार्थ-जहाँ निरन्तर जाया पाया करते हैं, वहाँ के नदी और तालाब आदि स्थानों के परिचय को अभ्यासदशा कहते हैं। इस स्थान में प्रामाण्य का निर्णय स्वतः हो जाता है। और जहाँ कभी गये प्राये नहीं वहाँ के नदी और तालाब आदि स्थानों के परिचय को अनभ्यासक्या कहते हैं। ऐसे स्थानों में दूसरे कारणों से ही प्रामाण्य का निर्णय होता है।॥ १३ ॥