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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां प्रथमः परिच्छेदः ।
खंडन किया गया है। यदि वे वाक्योच्चारण पक्ष में ऐसा मानते तो सत्य हो सकता था, परन्तु उनका ज्ञान को शब्दोच्चारणजन्य एकान्तरूप से कहना ठीक नहीं है ॥ १० ॥
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शब्दोच्चारण बिना भी स्वप्रतीति की पुष्टि
को वा तत्प्रतिभासिन मयंमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत्
अर्थ-लौकिक या परीक्षक ऐसा कौन पुरुष है जो ज्ञान से प्रतिभासित हुये पदार्थों को तो प्रत्यक्षज्ञान का विषय माने, परन्तु स्वयं ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं माने, अर्थात् सभी मानेंगे । कि जब ज्ञान दूसरे पदार्थों का प्रत्यक्ष करता है तब अपना भी प्रत्यक्ष करता होगा । यदि अपने को नहीं जानता होता, तो दूसरे पदार्थों को भी नहीं जान सकता । जैसे घट वर्ष रह अपने आप को नहीं जानते, इसलिये दूसरों को भी नहीं जानते है ॥ ११ ॥
संस्कृतार्थ - वदा ज्ञानं परपदार्थ प्रत्यक्षं करोति तदा स्वस्य प्रत्यक्षमपि तस्यावश्यं स्यात् । यदि च स्वं न मानीयार्त्ताहि परपदार्थान् ज्ञातुगपि न घक्नुथात् । यथा घटादवः स्वं न जानन्त्यतः परमपि न जानन्ति । इति स्थितों को तोकिकः परीक्षको वा बनो विद्यते यो ज्ञान विभासिनअयं प्रत्यक्षं स्वीकुर्वन् स्वयं ज्ञानं प्रत्यक्षं नो स्वीकुर्यात् ? ॥ ११ ॥
शिक्षेोषार्थ वो यह कहेगा कि में पट का प्रत्यक्ष कर रहा है उसको 'में' बब्द के वाध्य ज्ञान का भी प्रत्यक्ष मानना होगा ॥ ११ ॥ स्वप्रतीतिपुष्टेराहरणम्, स्व की प्रतीति की पुष्टि का उदाहरणप्रदोषवत् ॥ १२ ॥
तरे पदान ो
तिर
-- दीपक ट पट एका पापने पाप (श्रीपक) को भी प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान घट