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प्रागमप्रमाण लक्षण
प्रतिपादन करना असम्भव है अतः इस तरह से प्रवक्तव्य नाम का चौथा रूप नयवचन का निष्पन्न होता है । नयवचन के पांचवें, छटे और सातवें रूपों को प्रमाणवचन के पांचवें, छठे और सातवें रूपों के समान समझ लेना चाहिये। जैनदर्शनमें नयवचन के इन सातरूपों को, नयसप्तभंगी नाम दिया गया है।
इन दोनों प्रकार की सप्तभंगियों में इतना ध्यान रखने की जरूरत है कि जब सत्त्व-धर्ममुखेन वस्तु के सत्त्वधर्म का प्रतिपादन किया जाता है तो उस समय वस्तु की प्रसत्त्वधर्मविशिष्टता को अथवा वस्तु के असत्त्वधर्म को अविवक्षित मान लिया जाता है और यही बात असत्त्वधर्ममुखेन वस्तु का अथवा वस्तु के असत्त्वधर्म का प्रतिपादन करते समय वस्तु की सत्त्वधर्म विशिष्टता प्रशचा वस्तु के सत्त्वधर्म के बारे में समझना चाहिये । इस प्रकार उभयधर्मों की विवक्षा (मुख्यता) और प्रविवक्षा ( गौणता ) के स्पष्टीकरण के लिये स्याद्वाद अर्थात् स्यात् की मान्यता को भी जैनदर्शन में स्थान दिया है।
स्याद्वाद का अर्थ है-किसी भी धर्म के द्वारा वस्तु का भयवा वस्तु के किसी भी धर्म का प्रतिपादन करते वक्त उसके अनुकूल किमी भी निमित्त, किसी भी दृष्टिकोण या किसी भी उद्देश्य को लक्ष्य में रखना और इस तरह से हो वस्तु की विरुद्धधर्मविशिष्टता अथवा वस्तु में विरुद्ध धर्म का अस्तित्व अक्षुण्ण रखा जा सकता है । यदि उक्त प्रकार के स्याद्वाद को नहीं अपनाया जायगा तो वस्तु की विरुद्धधर्मविशिष्टता का अथवा वस्तु में विरोधी धर्म का अभाव मानना अनिवार्य हो जायगा और इस तरह से अनेकान्तवाद का भी जीवन समाप्त हो जायगा।
इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, सप्तभंगी और स्याद्वाद ये जैनदर्शन के अनूठे सिद्धान्त हैं । इनमें से एक प्रमाणवाद को छोड़ कर बाकी के चार सिद्धान्तों को. तो जौनदर्शन की अपनी ही निधि