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प्रामाण्य का निश्चय – अभ्यस्त विषय में तो स्वतः होता है और अनभ्यस्त विषय में पर से होता है । तात्पर्य यह है कि प्रामाण्य की उत्पत्ति तो सर्वत्र पर से ही होती है, किन्तु प्रामाण्य का निश्चय परिचित विषय में स्वतः और अपरिचित विषय में परतः होता है । परिचित - कई बार जाने हुये अपने गाँव के तालाब का जल वगैरह अभ्यस्त विषय हैं और अपरिचित - नहीं जाने हुये दूसरे गाँव के तालाब का जल वगैरह अनभ्यस्त विषय हैं । ज्ञान का निश्चय कराने वाले कारणों के द्वारा ही प्रामाण्य का निश्चय होना 'स्वत:' है और उससे भिन्न कारणों से होना 'परत: ' है ।
उनमें से अभ्यस्त विषय में 'जल है' इस प्रकार ज्ञान होने पर ज्ञानस्वरूप के निश्चय के समय में ही ज्ञानगत प्रमाणता का भी निश्चय श्रवश्य हो जाता है । नहीं तो दूसरे ही क्षण में जल में सन्देहरहित प्रवृत्ति नहीं होती, किन्तु जलज्ञान के बाद ही सन्देहरहित प्रवृत्ति प्राश्य होती है | अतः अभ्यासदशा में तो प्रामाण्य का निश्चय स्वत: ही होता है ।
पर अनभ्यास दशा में जलज्ञान होने पर 'जलज्ञान मुझे हुना' इस प्रकार से ज्ञान के स्वरूप का निश्चय हो जाने पर भी उसके प्रामाण्य का निश्चय अन्य ( श्रथं क्रियाज्ञान अथवा संवादज्ञान) से ही होता है । यदि प्रामाण्य का निश्चय अन्य से न हो—स्वतः हो तो जलज्ञान के बाद सन्देह नहीं होना चाहिये । पर सन्देह अवश्य होता है कि 'मुझ को जो जल का ज्ञान हुआ है वह जल है या बालू का ढेर ? इस सन्देह के बाद ही कमलों की गन्ध, ठण्डी हवा के आने आदि से जिज्ञासु पुरुष निश्चय करता है कि 'मुझे जो पहले जल का ज्ञान हुआ है वह प्रमाण है-सच्चा है, क्योंकि जल के बिना कमल की गन्ध श्रादि नहीं श्रा सकती है ।' श्रतः निश्चय हुआ कि अपरिचित दशा में प्रामाण्य का निर्णय पर से ही होता है ।
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