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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां षष्ठः परिच्छेदः ।
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अर्थ-शास्त्रीय विचार के समय में ही हेतु के अकिञ्चित्करत्व का विचार होता है, वादकाल में नहीं । क्योंकि व्युत्पन्न पुरुषों का प्रयोग पक्ष के दोषों से ही दुष्ट हो जाता है ॥ ३६ ॥
संस्कृतार्थ-अकिञ्चित्करहेत्वाभासविचारः शास्त्रो एव जायते, न तु वादे। यतो व्युत्पन्नप्रयोगः पक्षदोषेणैव दुष्यते, तत्र हेतुदोषस्य प्राधान्यं नो विद्यते ॥ ३६ ॥
अन्वयदृष्टान्ताभास के भेद
वृष्टान्ताभासा अन्वये ऽ सिद्धसाधनोभयाः ॥ ४० ॥
अर्थ-अन्वयदृष्टान्ताभास के तीन भेद हैं । साध्यविकलः, साधनविकलः, उभयविकलश्चेति त्रयो ऽन्वयदृष्टान्ताभासभेदा: विद्यन्ते । ४० ।
अन्वयदृष्टान्ताभासों के उदाहरण
Wথীঃ ইসুলাৰিদ্ভুিত্ৰথহলাম, अर्थ- शब्द अपौरुषेय होता है अर्थात् पुरुष का किया नहीं होता, क्योंकि वह अमूर्त होता है, जैसे कि इन्द्रियसुख । यहाँ इन्द्रियसुख पौरुषेय दृष्टान्त है और अपौरुषेयपना साध्य है। इन्द्रियसुख दृष्टान्त साध्य अपौरुषेयपने से रहित है; क्योंकि इन्द्रियसुख पुरुषकृत ही होता है, यह साध्यविकल ( असिद्धसाध्य ) अन्वयदृष्टान्ताभास का उदाहरण है।
दूसरे का दृष्टान्त परमाणु है। यहाँ साधन अभूतिकपना है; किन्तु परमाणु मूर्तिक है। परमाणु दृष्टान्त में अमूर्तिकपना साधन प्रसिद्ध है । इसलिये यह साध्यविकल ( प्रसिद्ध साधन ) अन्वयदृष्टान्ताभास है ।। ४१ ॥
___ तीसरे का दृष्टान्त घट है । यहाँ घट पौरुषेय भी है और मूर्तिक भी है। वह साध्य अपौरुषेय और साधन प्रमूर्तिकपना दोनों से रहित है