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________________ ८८ पञ्चतन्त्र मैंने यह जान लिया कि मुझ पर पिंगलक की कृपा-दृष्टि न सहने वाले निकटवर्तियों ने उसे मुझसे नाराज कर दिया है। मैं निर्दोष हूँ, फिर भी वह मेरे लिए ऐसा कहता है। कहा भी है ---- "सौतों के ऊपर नाराज होती हुई सौतों के समान इस संसार में सेवक-गण भी दूसरे सेवकों के ऊपर स्वामी की कृपा सहन नहीं कर सकते । ऐसा भी होता है कि पास में रहने वाले गुणवान के गुणों की वजह से दूसरों के ऊपर स्वामी की कृपा नहीं होती। कहा है कि "गुणी-जनों का गुण उनसे अधिक गुण वाले मनुष्यों के गुणों से ठंडा पड़ जाता है ; रात में दीये की लौ की शोभा होती है सूरज के उगने पर नहीं।" दमनक ने कहा , “मित्र! अगर यही बात है तो तुझे डर नहीं। दुर्जनों ने अगर पिंगलक को गुस्सा दिलाया है तो भी वह तेरी बातों से प्रसन्न होगा।" संजीवक ने कहा, “अरे! तूने यह ठीक बात नहीं कही । अगर बदमाश छोटे भी हों तो भी उनके बीच रहा नहीं जा सकता। वे कोई दूसरा उपाय रचकर रहने वाले को मार देते हैं। कहा है कि "चालबाजी से अपनी रोजी चलाने वाले छोटे पंडित ऊंट के बारे में जो कुछ कौए इत्यादि ने किया, उसी प्रकार भला या बुरा करते हैं ।" दमनक ने कहा, "यह कैसे ?" संजीवक कहने लगा-- सिंह, ऊँट, सियार और कौए की कथा "किसी वन में मदोत्कट नाम का सिंह रहता था। उसके नौकर चीता, कौआ, सियार और दूसरे पशु थे। उन्होंने एक बार इधर-उधर भटकते हुए कारवां से अलग पड़ गए एक ऊंट को देखा । इस पर सिंह ने कहा, “अहो ! यह कोई अजीब प्राणी है । इस बात का पता लगाओ कि यह जीव गाँव का है या शहर का।" यह सुनकर कौआ बोला, “स्वामी ! यह तो गांव
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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