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पञ्चतन्त्र
तिल्ली का श्रेय तेल है और धर्म मनुष्यत्व का श्रेय है । "धर्महीन पुरुषों की रचना पशुओं की तरह केवल मल-मूत्र करने, खाने और दूसरों की सेवा करने के लिए हुई है । "नीति शास्त्र के पंडित सब कामों को स्थिरतापूर्वक करने वाले को प्रशंसनीय मानते हैं, पर धर्मकार्यों में अनेक विघ्न आने से उन्हें 'जल्दी से करने को कहा गया है ।
"हे मनुष्यो ! मैं तुमसे धर्म संक्षेप में कहता हूं, विस्तार से कहने में क्या लाभ? परोपकार से पुण्य होता है, दूसरों को दुःख देने से पाप होता है ।
" तुम धर्म का सार जानो- सुनो और जानकर हृदय में धारण करो । जो वस्तु अपने लिए अनुकूल नहीं है उसका प्रयोग दूसरे के लिए भी नहीं करना चाहिए ।"
उसका धर्मोपदेश सुनकर खरगोश वोला, "हे कपिंजल ! यह धार्मिक तपस्वी नदी के किनारे बैठा है। इससे जाकर हमें पूछना चाहिए । “कपिंजल ने कहा, “ठीक है, पर यह स्वभाव ही हमारा दुश्मन है, इसलिए दूर रहकर हमें पूछना चाहिए। कदाचित उसका व्रत न टूट जाय ।"
बाद में दूर खड़े रहकर वे दोनों बोले, "हे धर्मोपदेशक तपस्वी ! हम दोनों के बीच झगड़ा हुआ है, इसलिए धर्मं- शास्त्र के अनुसार उसका फैसला करो । जो झूठ कहने वाला हो उसे तुम खा जाओ ।" उसने कहा, " भलेमानसो, ऐसा न कहो ! नरक के रास्ते जैसे हिंसक काम से मैं विरक्त हो गया हूं । अहिंसा ही धर्म का मार्ग है । कहा है कि
"सत्पुरुषों ने अहिंसा को धर्म का मूल कहा है, इसलिए जूं, खटमल, डांस आदि की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए ।
“जो निर्दय मनुष्य हिंसक प्राणियों को भी मारता है, वह घोर नरक में पड़ता है, फिर वह शुभ प्राणियों की हिंसा करे तो उसके बारे में कहना ही क्या ?
याज्ञि यज्ञ में भी पशुओं की बलि देते हैं, वे मूर्ख हैं । वे श्रुतियों