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पञ्चतन्त्र
कहा है
"प्राणियों का दुख हलका पड़ गया हो अथवा खत्म हो गया हो फिर
भी अक्सर प्रेमियों के दर्शन से वह बढ़ जाता है।"
आंसू रुकने पर चित्रांग ने लघुपतनक से कहा, "हे मित्र !अब तो मेरी मौत आ पहुँची है, इसलिए तेरे साथ मेरी मुलाकात हुई, यह ठीक ही हुआ। कहा है कि
'बहुत दीन हो जाने अथवा नष्ट हो जाने पर मित्र के दर्शन होने से प्राणियों को फिर बड़ी तकलीफ होती है। "प्राण जाने का भय उत्पन्न होने के समय मित्र के दर्शन होने से
चाहे प्राणी मरे या जिये फिर भी वह दोनों को सुखकारी होता है। प्रेम से गोठ में मैंने जो कुछ कहा, सुना हो उसे क्षमा करना । हिरण्यक और मंथरक से मेरी यह बात कहना।
मैंने जान में वा अनजान में जो कड़वी बातें कही हों उसे तुम दोनों आज मुझे कृपा करके माफ करना।"
यह सुनकर लघुपतनक ने कहा , “भद्र ! हम जैसे मित्रों के रहते हुए तुझे डरना नहीं चाहिए । मैं अभी हिरण्यक को लेकर जल्दी से वापस आता हूं। जो सत्पुरुष होते हैं वे कष्ट में घबराते नहीं। कहा है कि
“सम्पत्ति में जिसे हर्ष नहीं होता,विपत्ति में दुःख नहीं होता, लड़ाई में डर नहीं होता, ऐसे तीनों लोक के तिलक-स्वरूप बिरले पुत्र को
ही माता जन्म देती है।" यह कहकर और चित्रांग को भरोसा देकर लघुपतनक जहां हिरण्यक और मंथरक थे, वहां जाकर उनसे चित्रांग के जाल में फंसने की बात कही। चित्रांग के बंधन काटने का निश्चय करके हिरण्यक कौए की पीठ पर चढ़ कर जल्दी से चित्रांग के पास पहुंच गया। वह भी चूहे को देखकर अपनी जान बचने की उम्मीद से उससे बोला, "आपत्ति से पार पाने के लिए असली मित्र रखना चाहिए। जो बिना मित्र का होता है वह आपत्ति से नहीं पार पा सकता।" हिरण्यक ने कहा, "भद्र ! तू तो नीति-शास्त्र जानने वाला