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मित्रसंप्राप्ति
१६३ चले गए। इसलिए चित्रांग ! तू विश्वासपूर्वक वन के बाहर निकल।" इस तरह वे चारों मित्रतापूर्वक तालाव के किनारे दोपरह में पेड़ के नीचे बैठकर आपस में बातचीत करते हुए समय बिताने लगे । अथवा ठीक ही कहा है
"सुभाषितों के रसास्वादन से जिनके शरीर पर रोमांचरूपी चोला चढ़ गया है, ऐसे बुद्धिमान बिना स्त्रिी-संगम के ही सुखी होते हैं। "जो सुभाषित रूपी धन का स्वयं संग्रह नहीं करता, वह बातचीत
रूपी यज्ञ में किसे दक्षिणा दे सकेगा ? और भी "जो एक बार कही बात ग्रहण नहीं करता और स्वयं उसके
अनुसार काम नहीं करता, अथवा जिसके पास सदुक्तियों की पिटारी नहीं है, वह सुभाषित कहां से कह सकता है !" एक दिन गोष्ठी के समय चित्रांग नहीं आया। वे सब व्याकुल होकर आपस में कहने लगे-"अरे ! हमारा मित्र क्यों नहीं आया ? क्या वह सिंहादि पशुओं अथवा शिकारियों से मारा गया, क्या वह दावानल में भस्म हो गया ? क्या वह नई दूब के लालच से कठिन गढ़े में जा पड़ा है ? अथवा यह ठीक ही कहा है -
"प्रिय के घर के बगीचे में जाने से भी प्रियजन उसके अशुभ की आशंका करते हैं। अगर वह विघ्नों और भय से भरे हुए जंगल में जाय तो फिर कहना ही क्या है ?" बाद में मंथरक ने कौए से कहा, "हे लघुपतनक ! मैं और हिरण्यक तो धीमी चाल से उसे खोजने में असमर्थ हैं, इसलिए वन में जाकर तू इस बात का पता लगा कि क्या वह जीवित है ?" यह सुनकर लघुपतनक थोड़ी दूर गया और उसने एक तलैया के किनारे चित्रांग को जाल में जकड़ा देखा। उसे देखकर शोक से व्याकुल चित्त कौए ने कहा, “भद्र, यह क्या ?" चित्रांग भी कौए को देख कर विशेष दुखित हुआ। अथवा यह ठीक ही