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मित्रसंप्राप्ति
१६५ बुद्धिमान है, फिर तू क्यों इस फंदे में फंस गया ?" उसने कहा, "अरे यह बहस का समय नहीं है। जब तक वह प.पी सिकारी यहां न आ पहुंचे उसी बीच में तू मेरे पैर का बंधन जल्दी से काट डाल।" यह सुनकर हिरण्यक ने हँसकर कहा , “मेरे आने पर भी तू शिकारी से क्यों डरता है ?" तेरे जैसा नीति-शास्त्रज्ञ भी ऐसी हालत में पहुंच जाता है, इसलिए उस शास्त्र से मेरा मन हट गया है।" उसने कहा, "कर्म से बुद्धि भी मारी जाती है । कहा है कि
"काल के पाश में जकड़े और दैव द्वारा कुंठित चित्त वाले बड़े
आदमियों की भी बुद्धि टेढ़ी पड़ जाती है। "विधाता ने कपाल में जो अक्षर लिख दिए हैं, उसे अपनी बुद्धि
से मिटाने में बड़े पंडित भी अशक्त हैं।" वे दोनों इस तरह बातचीत कर ही रहे थे कि वहां मित्र के दुःख से दुखी हृदय वाला मंथरक भी धीरे-धीरे आ पहुंचा। उसे देखकर हिरण्यक ने लघुपतनक से कहा, "अरे! यह बात ठीक नहीं हुई।" हिरण्यक बोला, "क्या वह शिकारी आ रहा है ?" उसने कहा, "शिकारी की बात तो अलग रही, यह तो मथरक आ रहा है । उसने नीति के विरुद्ध आचरण किया है, क्योंकि अगर वह शिकारी पहुंच गया तो मंथरक की वजह से हम सब का नाश होगा। शिकारी के आने पर मैं तो आकाश में उड़ जाऊंगा, तू बिल में घुसकर अपने को बचा लेगा और चित्रांग भी तेजी से दूसरी दिशा में भाग जायगा, पर इस जलचर का क्या होगा, यह सोचकर मैं व्याकुल हूं।" इसी बीच में मंथरक वहां पहुंच गया। हिरण्यक ने कहा, “तूने यहां आकर ठीक नहीं किया। इसलिए जब तक शिकारी न आये, उसी बीच में तू पीछे लौट जा।" मंथरक ने कहा, “भद्र ! मैं क्या करूं, वहां रहकर मैं मित्र के दुःख रूपी आग का दाह सहन नहीं कर सकता था, इससे यहां आया हूं। अथवा यह ठीक ही कहा है कि
"यदि अच्छी दवा के समान मित्र जनों का संयोग न होता तो प्रियजनों का वियोग और धन का नाश कौन सहन कर