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मित्र-संप्राप्ति
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हो ?” उसने जवाब दिया, " प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः ।" यह सुनकर दंडपाशक ने कहा, "यह मंदिर तो सूना है, इसलिए तू मेरे स्थान पर जाकर सो रह ।" ऐसा करना मंजूर करके वह समझ के फेर से, किसी दूसरे के घर में जाकर सो गया। उस दंडपाशक की विनयवती नाम की रूपवती और युवा लड़की किसी दूसरे पुरुष पर अनुरक्त होकर और उसके साथ संकेत करके उस जगह में सो रही थी । उस कन्या ने 'प्राप्तव्यमर्थं' को आते देखकर रात्रि के घने अंधकार में 'यही मेरा प्यारा है, यह मानकर उसके सामने आई । सामने जाकर भोजन वस्त्रादि से उसकी खातिर करके तथा गांधर्व - रीति से उसके साथ विवाह करके तथा उसके साथ पलंग पर बैठकर खिले कमल जैसे मुख से कहने लगी, " अब भी तुम क्यों मुझसे बेखटके बातचीत नहीं करते ?” उसने कहा, “प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः ।" 'इसे सुनकर उस कन्या ने सोचा, “बिना विचारे जो काम करने में आता है उसका नतीजा यही होता है ।" यह विचारकर और दुखित होकर उसने उसे बाहर निकाल दिया ।
जब वह गली में जा रहा था तब दूसरे देश का रहने वाला वरकीर्ति नाम का एक दूल्हा बाजे-गाजे के साथ आया । 'प्राप्तव्यमर्थ' भी बारात के साथ हो लिया । विवाह का समय आ पहुंचने पर राज मार्ग से सटे सेठ के घर के दरवाजे पर, वेदिका -युक्त मंडप के नीचे, कुलाचार करके और -मंगल-वेष पहनकर बनिए की लड़की बैठी थी। उसी समय एक मतवाला हाथी अपने महावत को मारकर सब आदमियों को घायल करता हुआ, भागने वालों के शोर से, लोगों को व्याकुल करता हुआ उस जगह पहुंच गया । उसे देखकर वर के साथ' के सारे बराती छिटपुट होकर इधर-उधर भाग गए। इसी बीच में डरी आंखो वाली उस कन्या को अकेली देखकर उसने कहा, "तू मत डर, मैं तेरा रक्षक हूं।" इस तरह उसे धीरज दिलाकर तथा उसका दाहिना हाथ पकड़कर 'प्राप्तव्यमर्थं बड़े साहस से कठोर वाक्यों द्वारा उस हाथी को चपेटने लगा । दैव योग से हाथी किसी प्रकार वहां से चला गया । विवाह का समय बीत जाने पर वरकीति मित्रों और