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पञ्चतन्त्र
रिश्तेदारों के साथ वहां आया और वहां कन्या को दूसरे हाथ में पड़ी देख कर कहा , “अरे ससुर जी ! आपने मुझे वचन देने के बाद भी कन्या दूसरे को देकर बड़ा अनुचित किया है। " उसने उत्तर दिया, "मैं भी डर से भाग गया था और तुम्हारे साथ ही यहां आया हूं, फिर यहां क्या हुआ, यह मैं नहीं जानता।" यह कहकर वह अपनी पुत्री से पूछने लगा, “यह तूने ठीक नहीं किया। बता कि क्या बात है ?" वह बोली , "इसने मेरी जान जोखिम से बचाई है, इसलिए मैं जब तक जीती हूं तब तक दूसरा कोई मेरा हाथ नहीं पकड़ सकता।" इस तरह बातचीत में रात बीत गई।
___सबेरे वहां महाजनों का इकट्ठा होना सुनकर राजकन्या भी आई। कानों-कान खबर सुनकर दंडपाशक की कन्या भी आ पहुंची। महाजनों को वहां एकत्रित सुनकर राजा भी आ पहुंचे। उन लोगों ने 'प्राप्तव्यमर्थं से कहा , “बात क्या है, सच-सच कह।" इस पर उसने कहा , "प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः।" राजकन्या भी याद पड़ने से बोली, “देवोऽपि तं लंघयितुं न शक्यः ।" बाद में दंडपाशक की लड़की बोली , "तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे।" यह सब बातचीत सुनकर बनिए की लड़की बोली , “यस्मदीयं न हि तत् परेषाम् ।”
बाद में अभयदान देकर तथा सबसे अलग-अलग बयान सुनने के बाद, असल बात जानकर राजा ने 'प्राप्तव्यमर्थं' को गहने, दासों और एक हजार गांवों के साथ बड़े इज्जत के साथ अपनी लड़की दे दी। यह हमारा पुत्र है', यह बात सारे नगर में फैलाकर उसे युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया। दंडपाशक ने भी अपनी शक्ति के अनुसार प्राप्तव्यमर्थ' को वस्त्रादि देकर और सत्कार करके अपनी पुत्री दे दी। बाद में प्राप्तव्यमर्थ' कुटुम्बियों सहित अपने माता-पिता को उस नगर में लाया और उनके साथ आनन्द उठाते हुए सुखपूर्वक रहने लगा।
मनुष्य मिलनेवाले धन को लेता है। देवता भी उसे ऐसा करने से रोक नहीं सकते । इसलिए मैं शोक नहीं करता। जो हमारा है वह दूसरे का नहीं हो सकता ।